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स्वाधीन हो के भी कहाँ स्वाधीन हम हुए - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२१/२१२१/२२२/१२१२


फेंका जो होता आप ने पत्थर सधा हुआ
दिखता जरूर भेड़िया घायल गिरा हुआ।१।
**
हर बार अपनी चाल जो होती नहीं सफल
है दुश्मनों से  आज  भी  कोई मिला हुआ।२।
**
स्वाधीन हो के  भी कहाँ स्वाधीन हम हुए
फिरता न यूँ ही हाथ ले फदली कटा हुआ।३।
**
रोटी मिली न मुझको न तुझको खुशी मिली
ऐसी गजल से बोल तो किस का भला हुआ।४।
**
कल तक जो हँसता खेल के चिंगारियों से था
रोता है आज  देख  के  निज  घर जला हुआ।५।
**
मैं जुगनुओं को मुँह लगा मुश्किल में आज भी
अपमान अपना  सोच  जो  सूरज  खफा हुआ।६।
*
मौलिक-अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

* (१९८९ में प्रधानमंत्री के चुनाव क्षेत्र में एक जमीदार ने बधुआ मजदूर फदली के हाथ काट दिये थे । यह शेर उस समय लिखा था। गजल के बाकी शेर नये हैं )

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Comment by Harash Mahajan on September 11, 2020 at 12:40pm

आदरणीय जनाब लक्ष्मी धामी जी आदाब ।

बहुत ही उम्दा ख्यालों से भरपूर ग़ज़ल । अच्छी ग़ज़ल के लिए बधाई स्वीकार करें ।

सादर ।

Comment by Dimple Sharma on September 2, 2020 at 4:07pm

आदरणीय लक्ष्मण धामी'मुसाफिर'जी नमस्ते खुबसूरत ग़ज़ल पर बधाई स्वीकार करें,ग़ज़ल के भाव बिल्कुल नए हैं और अंदाज़ बिल्कुल अलग, अद्भुत बधाई हो आपको आदरणीय।

Comment by Samar kabeer on August 28, 2020 at 6:42pm

जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।

अरकान यूँ लिखें:-

221 2121 1221 212

जनाब अमीर जी से सहमत ।

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on August 27, 2020 at 9:11pm

आदरणीय जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब, अच्छी ग़ज़ल हुई है मुबारकबाद पेश करता हूँ।

"मैं जुगनुओं को मुँह लगा मुश्किल में आज भी

अपमान अपना सोच जो सूरज खफा हुआ।६।     इस शे'र का भाव स्पष्ट नहीं है।  सादर। 

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