बिना दिल के ......
लहरों से टकराती
हवाओं से उलझती कश्ती को
आख़िरकार
किनारा मिल ही गया
मगर
अभी तो उसे जीना था
वो समंदर
ज़िंदा थीं जिसमें
उसकी बेशुमार ख्वाहिशें
उसके साथ जीने की
लगता था
उसके बिना
रेतीले किनारों पर
मेरा बदन मृत सा पड़ा जी रहा था
इस आस में
कि मेरा समंदर
मुझे नहीं छोड़ेगा
इन रेतीले किनारों में
दफन होने के लिए
वो जानता है
बिना दिल के भी
कहीं ज़िस्म जीता है
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी सृजन आपकी मनोहारी प्रशंसा का दिल से आभारी है।
आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन । अच्छी रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।
आदरणीय श्री सुशील सरना जी अच्छी रचना हुई है। बधाई स्वीकार कीजिये।
आदरणीय ज़नाब सरना जी बहुत ही सुंदर सृजन ।
वो जानता है
"बिना दिल के भी
कहीं ज़िस्म जीता है"
वाह ।
सादर ।
जनाब सुशील सरना जी आदाब, अच्छी रचना हुई है, बधाई स्वीकार करें ।
कुछ वाक्य विन्यास की ग़लतियाँ देखें:-
'वो समंदर
ज़िंदा थीं जिसमें'--"वो समंदर ज़िंदा था जिसमें"
'रेतीली किनारों पर'--"रेतीले किनारों पर"
'इन रेतीली किनारों में'--"इन रेतीलेे किनारों में"
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