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ये मामला है दिल का फैला ले पर मेरे ख़त/1
जाना पड़ेगा तुझको उड़कर शहर मेरे ख़त
इस बार लिखना तय था वरना तो जाने कब से/2
आ जा रहे थे ख़्वाबों में उनके घर मेरे ख़त
अनपढ़ गंवार पागल थी इश्क़ क्या ही करती/3
चूल्हा जला रही थी वो फाड़ कर मेरे ख़त
सर्दी की रात थी जब उनको क़मर कहा था/4
उड़ कर के खुद गए थे उनके शहर मेरे ख़त
होठों की लाली होती थी जिन ख़तों पे पहले/5
अब रद्दी बन रहे थे बस उनके घर मेरे ख़त
इनकार लिखना इतना आसाँ नहीं समझ ले/6
लिखता हूँ मन है भारी पल भर ठहर मेरे ख़त
रद्दी के भाव बिके थे ज़रुरत को आगे रखकर/7
अब काम आ रहे थे कुछ इस क़दर मेरे ख़त
श्रृंगार कर लिया था आँखों ने उनकी ऐसा/8
हँस हँस के पढ़ रहे थे उनके गुहर मेरे ख़त
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय हर्ष महाजन जी ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और हौसला अफजाई के लिए हृदय तल से आभार आपका आदरणीय जी सही कहा आपने आदरणीय आदरणीय उस्ताद मोहतरम और सभी गुणीजनों के सानिध्य में हर रोज कुछ नया सीखने को मिल रहा है जो की ईश्वर कृपा समान है , इसके लिए जितना धन्यवाद किया जाए उतना कम है।
आ0 डिम्पल शर्मा जी आपकी ग़ज़ल की शिल्प के बारे में आदरणीय समर कबीर जी और अम्मीरुद्दीन जी सबकुछ अच्छे से कह दिया है जिससे हम लाभान्वित तो होंगे ही । मगर ग़ज़ल में आपके ख्याल बहुत ही खूबसूरत हैं ।
सादर
आदरणीय आशीष यादव जी नमस्ते,ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति मायने रखती है हृदय तल से आभार आपका आदरणीय।
आदरणीय सुशील शर्मा जी नमस्ते, बहुत शुक्रिया आपका आदरणीय, ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति हौसला बढ़ाती है यूं ही हौसला बढ़ाते रहें आदरणीय।
आदरणीय उस्ताद मोहतरम समय कबीर साहब आदाब चरण स्पर्श,ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति ईश्वर कृपा समान है , जी मैं सुधार करने का प्रयास करती हूं उस्ताद मोहतरम, हृदय तल से आभार आपका आदरणीय उस्ताद मोहतरम की आपकी तबीयत ठीक न होते हुए भी आप हमारा मार्गदर्शन कर रहे हो , आशीर्वाद और कृपा दृष्टि बनाए रखें।
बहुत अच्छी गजल का प्रयास किया गया है। भाव बहुत अच्छे हैं। आदरणीय उस्ताद साहिबान की सलाह पर भी ध्यान दीजियेगा।
मुहतरमा डिम्पल शर्मा जी आदाब, आपकी ग़ज़ल पर जनाब अमीरुद्दीन जी विस्तार से बता ही चुके हैं,।
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'ये मामला है दिल का फैला ले पर मेरे ख़त
जाना पड़ेगा तुझको उड़कर शहर मेरे ख़त'
मतले के ऊला में सहीह शब्द "मुआमला" 1212 और सानी में 'शहर' क़ाफ़िया उचित नहीं क्योंकि सहीह शब्द "शह्र" है और इसका वज़्न 21 होता है,देखियेगा ।
आदरणीय अमीरुद्दीन अमीर साहब आदाब, आपने अपना अनमोल समय देकर मेरा जो मार्गदर्शन किया है उसके लिए जितना आपका आभार व्यक्त किया जाए उतना कम है, जी आदरणीय मैं कोशिश करुंगी आपके मार्गदर्शन अनुसार सुधार करने की , आशीर्वाद और दया दृष्टि बनाए रखें।
मुहतरमा डिम्पल शर्मा जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है बधाई स्वीकार करें।
"अनपढ़ गंवार पागल थी इश्क़ क्या ही करती/3
चूल्हा जला रही थी वो फाड़ कर मेरे ख़त" ग़ज़ल में ज़बां की शाइस्तगी के ख़याल से ऊला यूँ कर सकते हैं :
"अनपढ़ थी भोली-भाली समझी न इश्क़ मेरा"
"सर्दी की रात थी जब उनको क़मर कहा था/4
उड़ कर के खुद गए थे उनके शहर मेरे ख़त" इस शैर के मिसरों में कोई रब्त नहीं है, देेखियेगा।
"होठों की लाली होती थी जिन ख़तों पे पहले/5
अब रद्दी बन रहे थे बस उनके घर मेरे ख़त" इस शैर के सानी मिसरे में शिल्प सहीह नहीं है, यूँ कर सकते हैं :
"अब रद्दी बन रहे हैं वो उनके घर मेरे ख़त"
"इनकार लिखना इतना आसाँ नहीं समझ ले/6
लिखता हूँ मन है भारी पल भर ठहर मेरे ख़त" इस शैर के ऊला का शिल्प बहतर किया जाना चाहिए, यूँ कर सकते हैं :
"इनकार लिखना इतना आसान भी नहीं है"
"रद्दी के भाव बिके थे ज़रुरत को आगे रखकर/7 इस शे'र का ऊला मिसरा बह्र में नहीं है
अब काम आ रहे थे कुछ इस क़दर मेरे ख़त" सानी मिसरे में 'अब' के साथ' थे' का मेल उचित नहीं है।
"श्रृंगार कर लिया था आँखों ने उनकी ऐसा/8. इस शे'र के दोनों ही मिसरों का शिल्प सहीह नहीं है, देखियेगा।
हँस हँस के पढ़ रहे थे उनके गुहर मेरे ख़त". सादर।
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