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क्या जाने किस जनम का सिला दे गया मुझे
था बेगुनाह फिर भी सज़ा दे गया मुझे
कैसे यक़ीन कीजिए ग़ैरों की बात का
समझा था जिसको अपना दगा दे गया मुझे
लम्बी हो उम्र मेरी दुआ मांँगता रहा
मरने की मुफ़्त में जो दवा दे गया मुझे
उसके इशारों को मैं समझ ही नहीं सका
गूंँगा था आदमी जो सदा दे गया मुझे
ग़ज़लें पुरानी ले गया आया था ख़्वाब में
इनके इवज में घाव नया दे गया मुझे
भीगा था जिस्म मेरा दिसम्बर की रात में
तुहफ़े में धूप की वो रिदा दे गया मुझे
*मौलिक एवं अप्रकाशित.
Comment
आदरणीय भाई बसंत कुमार शर्मा जी
सादर अभिवादन
ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और सराहना के लिए ह्रदय तल से आपका आभारी हूँ.
आ. भाई सालिक गणवीर जी, सादर नमस्कार ।
अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
भाई लक्षण धामी 'मुसाफ़िर' जी
सादर अभिवादन
ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और सराहना के लिए ह्रदय तल से आपका आभारी हूँ.
आ. भाई सालिक गणवीर जी, सादर अभिवादन । अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
भाई आशीष यादव जी
सादर अभिवादन
ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और सराहना के लिए ह्रदय तल से आपका आभारी हूँ.
आदरणीय श्री सालिक गणवीर साहब अच्छी गजल बनी है। बधाई स्वीकार कीजिये।
उस्ताद-ए-मुहतरम समर कबीर साहिब
आदाब
करेक्शन कर दिया और आपके सौजन्य से नया शैर भी जोड़ दिया मुहतरम. बहुत शुक्रिय:,नवाज़िशें.
'मैं उसके इशारों को समझ ही नहीं सका'
ये मिसरा बह्र में नहीं है, मेरी टिप्पणी ध्यान से पढ़ें ।
आमीन !
बहुत बहुत धन्यवाद प्रिय ।
आदरणीय समर कबीर साहिब
आदाब
ग़ज़ल पर आपकी मौजूदगी और हौसला अफजाई के लिए आपका तह-ए-दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ.इस्लाह पर अमल करने के बाद ग़ज़ल पुनः पोस्ट करता हूँ,मुहतरम. साथ ही साथ आपको जन्मदिन की अशेष शुभकामनाएंँ.ईश्वर आपको लंबी उम्र और अच्छी सेहत अताा करेंं.
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