221 2121 1221 212
क्या जाने किस जनम का सिला दे गया मुझे
था बेगुनाह फिर भी सज़ा दे गया मुझे
कैसे यक़ीन कीजिए ग़ैरों की बात का
समझा था जिसको अपना दगा दे गया मुझे
लम्बी हो उम्र मेरी दुआ मांँगता रहा
मरने की मुफ़्त में जो दवा दे गया मुझे
उसके इशारों को मैं समझ ही नहीं सका
गूंँगा था आदमी जो सदा दे गया मुझे
ग़ज़लें पुरानी ले गया आया था ख़्वाब में
इनके इवज में घाव नया दे गया मुझे
भीगा था जिस्म मेरा दिसम्बर की रात में
तुहफ़े में धूप की वो रिदा दे गया मुझे
*मौलिक एवं अप्रकाशित.
Comment
//मतले की शुरुआत न केबजाय ना से बेहतर होती//
उर्दू शाइरी में 'न' को 1 पर ही लिया जाता है ।
भाई चेतन प्रकाश जी
सादर अभिवादन
ग़ज़ल पर आपकी आमद और सराहना के लिए हृदयतल से आभार व्यक्त करता हूँ. सादर एवं सप्रेम।
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल हुई है, जनाब, सालिक गणवीर साहब! मतले की शुरुआत न केबजाय ना से बेहतर होती !
आदरणीया डिंपल शर्मा जी
आदाब
ग़ज़ल पर आपकी मौजूदगी और हौसला अफजाई के लिए आपका तह-ए-दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ.
आदरणीय अमीरूद्दीन 'अमीर'साहिब
आदाब
ग़ज़ल पर आपकी मौजूदगी और हौसला अफजाई के लिए आपका तह-ए-दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ.आखिरी के दोनो अश'आर हटा दूंगा जैसा कि उस्ताद जी की भी इस्लाह हैै लेकिन अगर आप मदद करेंगे तो छटा शैर भरती का शैर कहलाने से बच जाएगा आदरणीय. इस्लाह अपेक्षित है.
आदरणीय सालिक गणवीर जी नमस्ते, खुबसूरत ग़ज़ल पर बधाई स्वीकार करें आदरणीय ।
जनाब सालिक गणवीर जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।
'न जाने किस जनम का सिला दे गया मुझे'
ये मिसरा बह्र में नहीं है, 'न' की जगह "क्या" कर लें,बह्र में हो जाएगा ।
'जो अपना आदमी था दगा दे गया
मुझे'
इस मिसरे में 'आदमी' शब्द उचित नहीं,मिसरा यूँ कह सकते हैं:-
'समझा था जिसको अपना दग़ा दे गया मुझे'
'मैं उसके इशारात समझ ही नहीं सका'
ये मिसरा बह्र में नहीं है,यूँ कर लें:-
'उसके इशारों को मैं समझ ही नहीं सका'
'एवज में फिर से घाव नये दे गया मुझे'
इस मिसरे में सहीह शब्द "इवज़" 12 है, और क़ाफ़िया भी ग़लत है,यूँ कह सकते हैं:-
'उनके इवज़ में घाव नया दे गया मुझे'
'अंदर सुलग रहा था जो बरसों से आज तक
आया तो था बुझाने हवा दे गया मुझे
ये शैर भर्ती का है हटा दें ।
इसके बाद के अशआर में रदीफ़ से इंसाफ़ नहीं हो सका, हटा दें ।
आदरणीय जनाब सालिक गणवीर जी आदाब, पहले से पाँचवे शे'र तक अच्छे अह्सासात और जज़्बात निगारी के साथ शे'र कहे हैं आपने, मुबारकबाद पेश करता हूँ, लेकिन छटे शे'र के मिसरों में क्रमशः "क्या" और "कौन" की कमी खटक रही है, सातवें शे'र का कथ्य स्पष्ट नहीं है और आख़िरी शे'र का शिल्प औचित्यविहीन है। सादर।
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online