वो कहता है मेरे दिल का कोना कोना देख लिया
तो क्या उस ने तेरी यादों वाला कमरा देख लिया?
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वैसे उस इक पल में भी हम अपनों ही की भीड़ में थे
जिस पल दिल के आईने में ख़ुद को तन्हा देख लिया.
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उस के जैसा दिल तो फिर से मिलता हम को और कहाँ
सो हमने इक राह निकाली, मिलता जुलता देख लिया.
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मैख़ाने में एक शराबी अश्क मिलाकर पीता है
यादों की आँधी ने शायद उसे अकेला देख लिया.
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महशर पर हम उठ आए उस की महफ़िल से ये कहकर
तेरी दुनिया तुझे मुबारक़! तेरा होना देख लिया.
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बिकने पे आए थे हम भी, शुक्र मनाओ बिक न सके
बोली जिस जिस ने भी लगाई, हम से सस्ता देख लिया.
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“नूर” इस दुनिया से जाने की तेरी बेला आन पड़ी
तूने वैसे भी जो कुछ था देखने जैसा देख लिया.
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निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया आ. समर सर, शुक्रिया आ. मनोज भाई
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल हुई है आदरणीय नूर साहब
आपके और आदरणीय समर साहब के विचार विमर्श को पढ़ रहा था मेरा निवेदन है कि "यादों का कमरा" वाला ख़्याल ज्यादा मजबूत है उसे ही सही करके रखा जाए
बाकी ग़ज़ल बेहतरीन है ही
सादर
'यानी समुन्दर के धोखे में कोई क़तरा देख लिया'
मेरे ख़याल में 'कोई' की जगह "उसने" शब्द उचित होगा ।
आ. समर सर एवं मंच के सुधि पाठक गण!
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मतले में बहुत विचार के बाद तरमीम की है ..
अब मतला यूँ पढ़ा जाए..
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वो कहता है मेरे दिल का कोना कोना देख लिया
यानी समुन्दर के धोखे में कोई क़तरा देख लिया.
.
साथ ही सुझाव भी दें कि अब यह कैसा लग रहा है.
सादर
आ. समर सर ,
पुन: विचार करता हूँ..
सादर
शुक्रिया आ. लक्ष्मण जी
शुक्रिया आ. सालिक गणवीर साहब
उचित लगे तो मतले का सानी यूँ कर सकते हैं:-
'तो क्या उसने तेरी यादों का भी कमरा देख लिया'
आ. भाई नीलेश जी, सादर अभिवादन । इस बेहतरीन गजल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें ।
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