हमें अबूझा ही लगा, लोकतंत्र का रूप ..
रात-रात भर मंत्रणा, करती व्याकुल धूप !
कैसे कितना कौन कब, किसे लगाता तेल
गणना-गणित चुनाव का, भितरघात-धुरखेल
बहुत कमीने रहनुमा, क्या हम बाँधें आस
इंद्रमंच पर बैठ कर, करते हैं बकवास ।।
दिखा-दिखा वह तर्जनी, पुलक रहा हर बार
मालिक हम भी जानते, क्या होती सरकार !!
राजा-राजा खेलते, बेवकूफ हम रंक !
उँगली थामे सोचिए, दाग लगा या डंक ?
***
सौरभ
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
वाह वाह आदरणीय सौरभ जी...बहुत ही खूब दोहे हुए...
हार्दिक धन्यवाद, सुधीजनो, जिनने ओबीओ पर प्रस्तुति देखी और संभवत: अपरिहार्य कारणों से कुछ न कहा.
जिनने अपनी बात कही, उनके प्रति सादर आभार..
शुभ-शुभ
जनाब सौरभ पाण्डेय जी आदाब, बहुत उम्द: दोहे लिखे हैं आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
'राजा-राजा खेलते, बेवकूफ हम रंक !
उँगली थामे सोचिए, दाग लगा या डंक'
ये दोहा ख़ास तौर पर पसंद आया ।
आपकी पिछली रचनाओं पर आई टिप्पणियों के जवाब आप पर उधार हैं,देखियेगा:-)))
आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन । उत्तम दोहे हुए हैं हार्दिक बधाई ।
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