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एक पत्थर सा बस पड़ा हूँ मैं
हूँ मुसाफ़िर या रास्ता हूँ मैं (1)
अब कोई ढूँढता नहीं मुझको
एक मुद्दत से लापता हूँ मैं (2)
ज़िंदगी आजकल जहन्नम है
ख़्वाब जन्नत के देखता हूँ मैं (3)
छोड़ कर सब चले गए हैं या
भीड़ में फिर से खो गया हूँ मैं (4)
अब नहीं इंतिज़ार तेरा पर
रास्ता रोज़ देखता हूँ मैं (5)
हर तरफ है अजीब वीरानी
खुद में शायद उजड़ रहा हूँ मैं (6)
जिसने महरूम ही रखा सबको
क्यों वफा उनसे माँगता हूँ मैं (7)
* मौलिक/अप्रकाशित
Comment
मुहतरम अमीरुद्दीन 'अमीर' साहिब
आदाब
ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और सराहना के लिए हार्दिक आभार . ममनून हूँ कि आपने इस नाचीज़ के मिसरे पर इतनी मिहनत की. शुक्रिय : जनाब
उस्ताद - ए - मुहतरम समर कबीर साहिब
आदाब
ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और सराहना के लिए हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ और आपकी क़ीमती इस्लाह के लिए तह-ए -दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ. सलामत रहें।
जनाब सालिक गणवीर जी आदाब, क्या ख़ूब ग़ज़ल कही है आपने, उस्ताद मुहतरम की इस्लाह पर अमल के बाद ग़ज़ल और बहतर हो जाएगी। मतले के ऊला के लिए चंद मिसरे सुझाव के तौर पर पेश करने की जसारत कर रहा हूँ -
1. एक पत्थर सा बस पड़ा हूँ मैं 2. कबसे पत्थर सा बन खड़ा हूँ मैं 3. एक पत्थर सा बन गया हूँ मैं
4. फिर उसी रस्ते पर खड़ा हूँ मैं 5. चलके दो गाम बस पड़ा हूँ मैं सादर।
जनाब सालिक गणवीर जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।
'एक ही जगह बस पड़ा हूँ मैं'
इस मिसरे में आपने 'जगह' शब्द को 21 पर लिया है, जबकि इसका वज़्न 12 होता है, सुधारने का प्रयास करें ।
'गुम गया हूँ या लापता हूँ मैं'
इस मिसरे को यूँ कहें:-
'एक मुद्दत से लापता हूँ मैं'
'ऐसी वीरानगी है चारों सू
लग रहा है उजड़ रहा हूँ मैं'
इस शैर को यूँ कहें:-
'हर तरफ़ है अजीब वीरानी
ख़ुद में शायद उजड़ रहा हूँ मैं'
आदरणीय भाई लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी
ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और सराहना के लिए हार्दिक आभार.
आदरणीय Samar kabeer साहिब
आदाब
मुहतरम ये ग़ज़ल आपकी इस्लाह की मुंतज़िर है. ओ बी ओ पर कल ही अप्रूवल मिला है।
इस ग़ज़ल पर शायद मैं पहले टिप्पणी कर चुका हूँ, लेकिन वो नज़र नहीं आ रही है?
आ. भाई सालिक गणवीर जी, सादर अभिवादन । अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
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