फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन
ज़िन्दगी में सिर्फ़ ग़म हैं और तुम हो
आज फिर से आँखें नम हैं और तुम हो
लग रहा है अब मिलन संभव नहीं है
वक़्त से लाचार हम हैं और तुम हो
रात चुप, है चाँद तन्हा, साँस मद्धम
इश्क़ में लाखों सितम हैं और तुम हो
दिल की बस्ती में अकेला तो नहीं हूँ
नींद से बोझिल क़दम हैं और तुम हो
क्या बताऊँ किसलिये है 'ब्रज' परेशां
वस्ल के आसार कम हैं और तुम हो
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'
Comment
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय समर जी संशय दूर करने के लिए।दरअसल पहले आंख रखा था लेकिन वो भी ठीक नही था।सुधार करता हूँ सादर
जनाब बृजेश कुमार 'ब्रज' जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।
'आज फिर से चश्म-ए-नम हैं और तुम हो'
इस मिसरे में 'चश्म' एक वचन है,और रदीफ़ का 'हैं' बहुवचन में,इस मिसरे को यूँ कह सकते हैं:-
'आज फिर से आँखें नम हैं और तुम हो'
आदरणीय अमीरुद्दीन जी आपके खूबसूरत शब्दों से अति प्रसन्नता का अनुभव हुआ..शुक्रिया आपका..सादर
आदरणीय धामी जी हार्दिक अभिनंदन एवं आभार...
हौसलाफजाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय गुमनाम जी....
ग़ज़ल पसंदगी के लिए शुक्रिया भाई कृष मिश्रा जी...
ग़ज़ल पे आपकी हौसलाफजाई के लिए शुक्रिया मित्र आजी तमाम जी...
जनाब बृजेश कुमार जी आदाब, शानदार ग़ज़ल पेश की है आपने, शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ। सादर।
आ. भाई बृजेश कुमार जी, सादर अभिवादन । उत्तम गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
वाह शानदार ग़ज़ल हुई है बधाई।
अच्छी लगी वाह। ......
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