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पत्थर ने दी हैं रोज नजाकत को गालियाँ
जैसे नशेड़ी देता है औरत को गालियाँ।१।
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भाती हैं सब को आज ये चतुराइयाँ बहुत
यूँ ही न मिल रही हैं शराफ़त को गालियाँ।२।
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ये दौर नफरतों को फला इसलिए जनाब
देते हैं सारे लोग मुहब्बत को गालियाँ।३।
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दूल्हे को बेच सोचते खुशियाँ खरीद लीं
देता न कोई ऐसी तिजारत को गालियाँ।४।
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जिसने किया है देश को चारों दिशा तबाह
देंगे ही लोग ऐसी सियासत को गालियाँ।५।
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तहजीब माँ ने दूध सी ऐसी पिलायी है
देते बने न यार अदावत को गालियाँ।६।
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
आ. भाई बृजेश जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और सराहना के लिए आभार।
एक और बढ़िया ग़ज़ल के लिए बधाई आदरणीय
आ. भाई क्रिस जी , अभिवादन । गजल पर उपस्थिति व सराहना के लिए हार्दिक धन्यवाद।
आ. भैया नए से रदीफ़ के साथ आपकी ये ग़ज़ल बहुत पसंद आई, आ. समर सर के सुझाव के बाद और भी निखर गयी है।हार्दिक बधाई।
आ. भाई समर जी, पुनः उपस्थिति व मार्गदर्शन के लिए आभार ।
//भाती हैं सब को आज ये चतुराइयाँ बहुत
यूँ ही न मिल रही हैं शराफ़त को गालियाँ//
ये ठीक है ।
//रहती अधर पे सबके मुहब्बत को गालियाँ//
इस मिसरे का वाक्य विन्यास ठीक नहीं,यूँ कह सकते हैं:-
'देते हैं सारे लोग महब्बत को गालियाँ'
//तहजीब माँ ने दूध सी ऐसी पिलायी है
बनता न देते यार अदावत को गालियाँ//
इस शैर का सानी यूँ कर सकते हैं:-
'देते बने न यार अदावत को गालियाँ'
आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति स्नेह व मार्गदर्शन के लिए हार्दिक आभार। इंगित मिसरों में बदलाव किया है देखिएगा। सादर..
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'भाती हैं सब को आज ये चतुराइयाँ बहुत
यूँ ही न मिल रही हैं शराफ़त को गालियाँ'
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'रहती अधर पे सबके मुहब्बत को गालियाँ'
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'तहजीब माँ ने दूध सी ऐसी पिलायी है
बनता न देते यार अदावत को गालियाँ'
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।
'भाती हैं सब को आज चतुराइयाँ बहुत
यूँही न मिल रही हैं सराफत को गालियाँ'
इस शैर के ऊला की बह्र चेक करें,और सानी में 'सराफत' को "शराफ़त" लिखें ।
'रहती हैं सबके होंठ मुहब्बत को गालियाँ'
इस मिसरे का वाक्य विन्यास ठीक नहीं,देखियेगा ।
'माँ ने पिलायी दूध सी लोगो है शिष्टता
बनता न देते यार अदावत को गालियाँ'
इस शैर का भाव स्पष्ट नहीं हुआ, और सानी का वाक्य विन्यास ठीक नहीं,देखियेगा ।
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