स्वयं को आजमाने को
तू खुलकर आ जमाने में
बहुत अनमोल है जीवन
गवाँता क्यों बहाने में
नदी के पास बैठा है
दबा के प्यास बैठा है
तुझे मालूम है, तुझमें
कोई एहसास बैठा है
किनारे कुछ न पाओगे
मिलेगा डूब जाने में
तुम्हारे सामने दुनिया
सुनो रणभूमि जैसी है
स्वयं का तू ही दुश्मन है
स्वयं का तू हितैषी है
कहीं पीछे न रह जाना
स्वयं से ही निभाने में
कहाँ दसरथ की दौलत
राम जी के काम आती है
सदा बाहें स्वयं की
राह के काटें हटाती हैं
स्वयं के बाहुबल से
काम ले राहें बनाने में
जगा दे मन का बजरंगी
जला दे आलसी लंका
दिखा दे जोर पौरुष का
बजा दे विश्व में डंका
पड़ा विपदाओं का सागर
भला है लाँघ जाने में
विचारों के महा-रण में
स्वयं अर्जुन-कन्हैया बन
पड़ी मझधार में नैया
स्वयं का तू खेवैया बन
स्वयं ही शस्त्र बन जा तू
स्वयं को जीत जाने में
मौलिक एवं अप्रकाशित
आशीष यादव
Comment
जनाब आशीष यादव जी आदाब, प्रयास अच्छा है लेकिन रचना अभी समय चाहती है ।
इन पंक्तियों पर विचार करें:-
'किनारे कुछ न पाओगे
मिलेगा डूब जाने में
तुम्हारे सामने दुनिया
सुनो रणभूमि जैसी है'
पूरी रचना एक वचन में है,और ये पंक्तियाँ बहुवचन में ।
खूबसूरत रचना के लिए बहुत बहुत बधाई आदरणीय यादव जी...
जनाब आशीष यादव जी आदाब,बहुत उम्दा गीत हुआ है, दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ। सादर।
आ. भाई आशीष जी, सुंदर गीत हुआ है । हार्दिक बधाई...
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