कहो सूरमा! जीत लिए जग?
तुम्हें पता है जीत हार का?
केवल बारूदों के दम पर
फूँक रहे हो धरती सारी
नफरत की लपटों में तुमने
धधकाई करुणा की क्यारी
कितना आतंकित है जीवन
हरसू क्रंदन ही क्रंदन है
मानवता की लाश बिछी है
सहमा डरा विवश जन-जन है
तुम कितने खुश हो लहरा कर
बंदूकें - तलवारें - भाले
ऐसी विषम घड़ी आई है
दानवता को कौन सँभाले
किंतु नहीं यह जीत तुम्हारी
सारी मानवता हारी है
धर्म-कर्म सब हेय हुए हैं
गुरुता पर लघुता भारी है
तुमको जिसने आदेश दिया
वह पापी नीच दरिंदा है
वह लोभी वहशी हीन तुच्छ
है पर के बिना परिंदा है
तुमने अंगारों से जिसकी
खातिर यह दुनिया नापी है
चाहे अल्लाह-मसीहा हो
चाहे कि देव हो पापी है
तुमने जन्नत की चाहत में
दुनिया नर्क बना डाली है
ऐसे दुष्कर्मों की मंजिल
पतित घिनौनी है काली है
कितने दिन का है यह जीवन
गिनती के ही कुछ सालों का
वहशीपन में स्याह किया है
तुमने मुँह अपने लालों का
दुनिया से जाने वालों में
कुछ अब तक पूजे जाते हैं
और वहीं कुछ आतंकी हैं
आज तलक गाली खाते हैं
हाँ हिसाब होता है होगा
जब तुम भी उस तक जाओगे
बारूदों की खेती वालों
तब बारूदें ही पाओगे
पता तुम्हें है जीत हार का?
भय नफरत का द्वेष प्यार का?
जाओ पहले पता करो फिर
पूछो अपने अंतर्मन से
केवल तन पर राज किया
जा सकता है खंजर से धन से
मौलिक एवं अप्रकाशित
आशीष यादव
Comment
बहुत सारगर्भित रचना के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय...
जनाब आशीष यादव जी आदाब, अच्छी प्रस्तुति है, बधाई स्वीकार करें ।
अच्छा मर्मभेदी गीत हो सकता था, फिर गोला -बारूद से दुनिया नहीं जीती जा सकती, यह एक सत्य है! करुणा ही मानवता को अक्षुण्ण रख सकती है!
इस रचना का मर्म समझने एवं हौसला अफजाई करने के लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद श्री Manoj kumar Ahsaas साहब।
इस लंबी रचना में आप ने मानवता के जिस पक्ष को उजागर किया है उसके लिए आप हार्दिक बधाई के पात्र हैं सादर आभार
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