याद तुम्हारी क्या कहूँ, यूँ करती तल्लीन।
घर, दफ़्तर, दुनिया, ख़ुदी, सब कुछ लेती छीन।
जल बिन मछली से कभी, मेरी तुलना ही न।
मैं आजीवन तड़पता, कुछ पल तड़पी मीन।
प्रेम पहेली एक है, हल हैं किन्तु अनेक।
दिल नौसिखिया खोजता, इनमें से बस एक।
सज्जन हीरा प्रेम का, मिलता है बेमोल।
दाम लगाने मैं गया, तो पाया अनमोल।
हृदय कूप में जा गिरे, कुछ यादों के साँप।
बिन पानी, भोजन बिना, निशिदिन करें विलाप।
जादू सच्चे प्रेम का, कौन सका है काट।
राजा काँसा ले खड़ा, रंक बना सम्राट।
भूलभुलैया प्रेम की, जो भटके सो पार।
जो बच निकले, फँस रहे, ‘सज्जन’ बारंबार।
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आ. भाई धर्मेंद्र जी, सादर अभिवादन । दोहों का प्रयास अच्छा हुआ है । हार्दिक बधाई। पर कुछ दोहे सुधार चाहते हैं जैसे कि गुणी जनों ने बताया है।
//जल बिन मछली से कभी, मेरी तुलना ही न।//
में तनिक बदलाव कर वही भाव पैदा किया जा सकता है यथा--
जल बिन मछली से हुई, मेरी तुलना हीन।
सादर...
आदरणीय चेतन प्रकाश जी, सौरभ जी एवं समर कबीर साहब, आपकी बेबाक राय के लिए आपका तह-ए-दिल से शुक्रगुजार हूँ। आप के द्वारा इंगित अशुद्धियों को शीघ्रातिशीघ्र दूर करने का प्रयास करूंगा।
जनाब धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी आदाब, दोहों पर अच्छा प्रयास हुआ है, जो कमियाँ हैं उन पर जनाब सौरभ साहिब ने इशारों इशारों में बहुत कुछ कह दिया है, ध्यान दें, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
कृपया मंच पर सक्रियता बनाएँ ।
आदरणीय धर्मेन्द्र जी, एक अरसे बाद आपकी किसी प्रस्तुति पर अपनी प्रतिक्रिया दे रहा हूँ.
छंदों में प्रयोग किया जाना नया नहीं है. ऐसे-ऐसे प्रयोग हुए हैं कि कई बार दंग हो जाना पड़ता है. केशवदास को ’पद्य का प्रेत’ तक कह दिया गया, जो छंदों में भाव ही नहीं शिल्पगत प्रयोग के नाम पर भी विचित्र प्रयोग कर जाते दिखे हैं.
तुलसीदास ने भी शिल्पगत प्रयोग किये हैं, जिन्हें सार्थक की श्रेणी का माना जाता है.
आपके दोहे तुकांतता, विन्यास तथा मात्रिकता को लेकर बोहेमियन हुए हैं.
जल बिन मछली से कभी, मेरी तुलना ही न। ...शब्द या शब्दांश से हुए पदांत में गुरु-लघु होना नियमानुकूल माना गया है. न कि, दो भिन्न शब्दों के गुरु-लघु समुच्चय को
मैं आजीवन तड़पता, कुछ पल तड़पी मीन। ........ विषम चरणांत रगण या वाचिक रगणात्मक रखने में क्या दिक्कत है. वैसे, बहुतेरे हैं जिन्होंने अवधी में रचित मानस या पद्मावत का उदाहरण दे कर हिन्दी में अनुकरण करने को सहज श्रेष्ठ मानते हैं. अब तो फेसबुक पर ऐसों की भरमार हो गयी है. परन्तु, अपना ओबीओ तो कार्यशाला-पटल है न ?
विश्वास है, आप कम सुनेंगे, अधिक समझेंगे.
जय-जय
नमस्कार, भाई, धर्मेंद्र कुमार सिंह, तकनीकी दृष्टि से दोहा छंद का प्रयास ठीक जान पड़ता है! प्रस्तुति को पोस्ट करने से पहले आप पढ़ लेते तो प्रयास अपेक्षाकृत बेहतर होता! यथा, ही न, जब कि हीन लिखा जाए, तो ही लय / तुक समान होगी!
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