122 - 122 - 122 - 122
(भुजंगप्रयात छंद नियम एवं मात्रा भार पर आधारित ग़ज़ल का प्रयास)
दिलों में उमीदें जगाने चला हूँ
बुझे दीपकों को जलाने चला हूँ
कि सारा जहाँ देश होगा हमारा
हदों के निशाँ मैं मिटाने चला हूँ
हवा ही मुझे वो पता दे गयी है
जहाँ आशियाना बसाने चला हूँ
चुभा ख़ार सा था निगाहों में तेरी
तुझी से निगाहें मिलाने चला हूँ
ख़तावार हूँ मैं सभी दोष मेरे
दिलों से ख़राशें हटाने चला हूँ
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आ. सौरभ सर,
यूँ तो मैं अंतिम टिप्पणी कर चुका था किन्तु तनाफुर पर आदतन हडप्पा की खुदाई से यह ग़ज़ल बरामाद हुई ...
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अब दिखेगी भला कभी हममें..
आपसी वो हया जो थी हममें ?
हममें जो ढूँढते रहे थे कमी
कह रहे, ’ढूँढ मत कमी हममें’ !
साथिया, हम हुए सदा ही निसार
पर मुहब्बत तुम्हें दिखी हममें ?
पूछते हो अभी पता हमसे
क्या दिखा बेपता कभी हममें ?
पत्थरों से रही शिकायत कब ?
डर हथेली ही भर रही हममें !
चीख भरने लगे कलंदर ही..
मत कहो, है बराबरी हममें !
नूर ’सौरभ’ खुदा का तुम ही गुनो
जो उगाता है ज़िन्दग़ी हममें !
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सौरभ
(तकाबुले रदीफ या तनाफुर या शब्दों की बुनावट आदि के दोष दोष ही होते हैं. लेकिन कई बार विद्वान शाइर उससे दूरी नहीं बना पाते.)
यदि समय निकाल पाया तो जल्दी ही तक़ाबुल-ए-रदीफ़ पर भी किसी उस्ताद शाइर की ग़ज़ल पेश करूँगा.
सादर
आ. सौरभ सर,
मुझे लगता है कि आपकी ताज़ा टिप्पणी विषयांतर है .. यहाँ बात अमीर साहब के मतले की है और मैं न केवल राहत साहब अपितु इक़बाल अशर साहब और अहमद फ़राज़ साहब के शेर भी उदाहरण स्वरूप दे चुका हूँ अत: आपके पास कोई ठोस उदाहरण हो तो ज्ञानवर्धन करें..
आपकी मान्यता को अरूज़ के नियम मान लेना सम्भव नहीं है . मंच पर काफ़िया सम्बन्धी पूरी जानकारी ग़ज़ल की कक्षा में उपलब्ध है.
रहीं बातें तकाबुल ए रदीफ़ अथवा तनाफुर की.. तो ये अवश्य दोष हैं.. कोई मानता है कोई नहीं मानता..लेकिन यहाँ चर्चा इता दोष की है जो इस ग़जल में नहीं है.. अलिफ़ की मात्रा से पहले वर्ण बदल गये हैं.. अत: आगे ने आए या ते ..फर्क नहीं पड़ता
तनाफुर को लेकर ख़ुदा की यह ग़ज़ल देखें
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जिन के लिए अपने तो यूँ जान निकलते हैं
इस राह में वे जैसे अंजान निकलते हैं.
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क्या तीर-ए-सितम उस के सीने में भी टूटे थे
जिस ज़ख़्म को चीरूँ हूँ पैकान निकलते हैं.
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मत सहल हमें जानो फिरता है फ़लक बरसों
तब ख़ाक के पर्दे से इंसान निकलते हैं.
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किस का है क़िमाश ऐसा गूदड़ भरे हैं सारे
देखो न जो लोगों के दीवान निकलते हैं
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गह लोहू टपकता है गह लख़्त-ए-दिल आँखों से
या टुकड़े जिगर ही के हर आन निकलते हैं
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करिए तो गिला किस से जैसी थी हमें ख़्वाहिश
अब वैसे ही ये अपने अरमान निकलते हैं
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जागह से भी जाते हो मुँह से भी ख़शिन हो कर
वे हर्फ़ नहीं हैं जो शायान निकलते हैं
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सो काहे को अपनी तू जोगी की सी फेरी है
बरसों में कभू ईधर हम आन निकलते हैं
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उन आईना-रूयों के क्या 'मीर' भी आशिक़ हैं
जब घर से निकलते हैं हैरान निकलते हैं...................
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अमीर साहब ही की तरह योजित काफिये पर ख़ुदा की ही एक ग़ज़ल पेश है
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आह जिस वक़्त सर उठाती है
अर्श पर बर्छियाँ चलाती है
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नाज़-बरदार-ए-लब है जाँ जब से
तेरे ख़त की ख़बर को पाती है
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ऐ शब-ए-हिज्र रास्त कह तुझ को
बात कुछ सुब्ह की भी आती है
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चश्म-ए-बद्दूर-चश्म-ए-तर ऐ 'मीर'
आँखें तूफ़ान को दिखाती है.
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एक और ग़ज़ल मीर की
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शेर के पर्दे में मैं ने ग़म सुनाया है बहुत
मरसिए ने दिल के मेरे भी रुलाया है बहुत
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बे-सबब आता नहीं अब दम-ब-दम आशिक़ को ग़श
दर्द खींचा है निहायत रंज उठाया है बहुत
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वादी ओ कोहसार में रोता हूँ ड़ाढें मार मार
दिलबरान-ए-शहर ने मुझ को सताया है बहुत
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वा नहीं होता किसू से दिल गिरफ़्ता इश्क़ का
ज़ाहिरन ग़मगीं उसे रहना ख़ुश आया है बहुत
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'मीर' गुम-गश्ता का मिलना इत्तिफ़ाक़ी अम्र है
जब कभू पाया है ख़्वाहिश-मंद पाया है बहुत
यूँ तो मीर के बाद कोई दलील देना बेअदबी है फिर भी हसीब सोज़ साहब का मतला शायद कोई राहत दे सके
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बड़े हिसाब से इज़्ज़त बचानी पड़ती है
हमेशा झूटी कहानी सुनानी पड़ती है
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यह इस सिलसिले में मेरी अंतिम टिप्पणी है.. नए सीखने वाले शायद समझ गए होंगे कि ग़ज़ल में योजित काफिया कैसे बाँधा जाता है.
सादर
//अनेकानेक शाइर हैं, जिनके शेर में जहाँ-तहाँ दोष दीख जाते हैं. लेकिन शाइर अपनी गलतियों को लेकर मुर्गे की टांग नहीं बनाने लगते. वे कह देते हैं कि उक्त शेरों में ऐब तो है मगर इससे बेहतर उन शर्तों पर नहीं कह पा रहे हैं//अपने ओबीओ का पटल सीखने-सिखाने का पटल है. मूलभूत नियमावलियों को समझने और तदनुरूप बरतना सीखने का पटल है//
आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी, आप अभी तक निश्चित नहीं हैं कि इस ग़ज़ल के मतले में ईता-ए-ख़फ़ी दोष है या ईता-ए-जली जैसा कि आपने कहा भी है ''प्रारंभ से मेरा निवेदन है कि आपके काफिया निर्धारण में ईता का ऐब है. मैं तो छोटी ईता और बड़ी ईता की बात ही नहीं कर रहा हूँ"
आप ओ बी ओ पटल के सम्मानित और वरिष्ठ सदस्य होने के साथ-साथ टीम प्रबंधन के सम्मानित सदस्य के पद को भी सुशोभित कर रहे हैं लिहाज़ा ग़ज़ल में बड़ी ईता है या छोटी ईता का दोष है बताते तो अच्छा होता क्योंकि यह सीखने सिखाने का पटल है, यदि यह बात शुरू में स्पष्ट हो जाती तो 'मुर्ग़े की एक टाँग' न होती क्योंकि केवल छोटी ईता पर तो चर्चा को इतनी लम्बी खींचने की ज़रूरत ही नहीं होती क्योंकि अक्सर-ओ-बेशतर इसे नज़र-अंदाज किया जाता है। अब ये चर्चा बिना किसी नतीजे के समापन के कगार पर आ गयी है। कृपया ईता दोष के सम्बन्ध में नियमावली के हवाले से बताने का कष्ट करें कि क़ाफ़िये में अमुक नियम या उपनियम के अन्तर्गत छोटी ईता का दोष है अथवा बड़ी ईता का दोष है जिससे कि स्पष्टीकरण दे सकूं अथवा दोष स्वीकार कर सकूं, कृपया इस असमंजस की स्थिति से ख़ुद भी बाहर आइये और मुझे भी निकालिए। आपके अवलोकनार्थ कुछ नामचीन और उस्ताद शाइरों की ग़ज़ल के मतले भी कोट कर रहा हूँ, देखियेगा।
'नुक़्ताचीं है ग़म-ए-दिल जिस को सुनाए न बने
क्या बने बात जहाँ बात बनाए न बने' - मिर्ज़ा ग़ालिब क़ाफ़िया- 'आए' छोड़ कर बचे शब्द 'सुन' और 'बन' पूर्ण शब्द
'हमारे ज़ख़्म-ए-तमन्ना पुराने हो गये हैं
कि उस गली में गये अब ज़माने हो गये हैं' - जौन एलिया क़ाफ़िया- 'आने' छोड़ कर बचे शब्द 'पुर' और 'ज़म' पूर्ण शब्द
'आह जिस वक़्त सर उठाती है
अर्श पर बर्छियाँ चलाती है' - मीर तक़ी मीर क़ाफ़िया- 'आती' छोड़ कर बचे शब्द 'उठ' और 'चल' पूर्ण शब्द
'अजब हालत हमारी हो गई है
ये दुनिया अब तुम्हारी हो गई है' - जौन एलिया क़ाफ़िया- 'आरी' छोड़ कर बचे शब्द 'हम' और 'तुम' पूर्ण शब्द
'दुज़्दीदा निगह करना फिर आँख मिलाना भी
इस लौटते दामन को पास आ के उठाना भी' - मीर तक़ी मीर क़ाफ़िया- 'आना' छोड़ कर बचे शब्द 'मिल' और' उठ' पूर्ण शब्द
' दिलों में उमीदें जगाने चला हूँ
बुझे दीपकों को जलाने चला हूँ' - अज़ख़ुद क़ाफ़िया- 'आने' छोड़ कर बचे शब्द 'जग' और 'जल' पूर्ण शब्द (आपकी मान्यतानुसार) सादर।
आदरणीय नीलेश जी, किसी दोष का होना और न मानना, किसी दोष होना और मान लेना, लेकिन उसे दूर न कर पाना, दोनों दो चीजें हैं.
तकाबुले रदीफ या तनाफुर या शब्दों की बुनावट आदि के दोष दोष ही होते हैं. लेकिन कई बार विद्वान शाइर उससे दूरी नहीं बना पाते. आपने जिन शाइरों के शेर उद्धृत किये हैं, उनके अलावा भी फ़िराक़, या अपने अग्रज एहतराम भाई साहब जैसे अनेकानेक शाइर हैं, जिनके शेर में जहाँ-तहाँ दोष दीख जाते हैं. लेकिन शाइर अपनी गलतियों को लेकर मुर्गे की टांग नहीं बनाने लगते. वे कह देते हैं कि उक्त शेरों में ऐब तो है मगर इससे बेहतर उन शर्तों पर नहीं कह पा रहे हैं. यह एकदम से अलग बात होती है. ऐसे अपवादों को नियम का दर्जा नहीं मिल जाता. अपने ओबीओ का पटल सीखने-सिखाने का पटल है. मूलभूत नियमावलियों को समझने और तदनुरूप बरतना सीखने का पटल है.
मेरी चर्चा का आशय यही है, न कि मैं अपनी दो कौड़ी की काबिलियत दिखा रहा हूँ. लेकिन, राहत साहब तो तनाव-चुनाव से भी काफिया निकाल लेते हैं. एकधुरंधर बादल-पागल पर दिल थोप देता है. क्या कीजिएगा ? समरथ को नहिं दोस गुँसाईं.. गोसाईं जी तो कह ही गये हैं न ! .. :-))
कई बार यह भी होता है कि कतिपय रचनाओं का मर्म न समझ पाने के कारण पाठकगण भी 'दोष' आदि ढूँढने और बताने लगते हैं. जबकि होता यह है, कि ऐसी रचनाओं का स्तर या भाव-विन्यास एक अलग आयाम का होता है. वर्तमान चर्चा इस लिहाज की नहीं है.
शुभातिशुभ
एक और उम्दा ग़ज़ल और उसपे हुई चर्चा...वाह
आ. सौरभ सर,
योजित काफ़िया में यदि बढ़ा हुआ अक्षर हटाने के बाद भी दोनों शब्द सार्थक हों जैसा इस केस में है..तो दोष नहीं माना जाएगा .
जगा ने और जला ने से ने हटाने पर जगा और जला बचते हैं जो अलिफ़ पर दुरुस्त काफिया हैं अत: यहाँ दोष नहीं है..
हस्तीमल हस्ती की बड़ी मकबूल ग़ज़ल जिसमें आपके द्वारा वर्णित दोष है ..का मतला निम्न है..
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प्यार का पहला ख़त लिखने में वक़्त तो लगता है
नए परिंदों को उड़ने में वक़्त तो लगता है...
यहाँ ने को हटाने पर लिख व उड़ में काफिया नहीं बनता लेकिन कई विद्वान् इसे भी भिन्न क्रियारूप काफिया बता कर चलाते हैं और दुरुस्त मानते हैं..
अमीर साहब की ग़ज़ल के काफिया में कोई दोष नहीं है..
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अपने ही तरही आयोजन 40 में इकबाल अशर साहब का मिसरा था .'इक आफ़ताब के बेवक्त डूब जाने से"
http://www.openbooksonline.com/forum/topics/40?id=5170231%3ATopic%3...
उसी ग़ज़ल का मतला यूँ है ..
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सिलसिला ख़त्म हुआ जलने जलाने वाला
अब कोई ख़्वाब नहीं नींद उड़ाने वाला.. इक़बाल अशर .
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तेरी बातें ही सुनाने आए
दोस्त भी दिल ही दुखाने आए.. अहमद फ़राज़
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हाथ ख़ाली हैं तिरे शहर से जाते जाते
जान होती तो मिरी जान लुटाते जाते
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शायद मैं अपना केस ठीक से प्लीड कर पाया हूँ ..
१०००% कन्फर्म हूँ कि अमीर साहब के काफिये में दोष नहीं है .
सादर
अब चूँकि आप समझ चुके हैं कि आपसे क्या अपेक्षित है, आगे आप स्वयं फैसला करें.
वस्तुत:, अब चर्चा मुर्गे की टांग हो रही है, मैं प्रस्तुत चर्चा से अपनी भागीदारी वापस लेता हूँ. आपकी इस पोस्ट पर आए सुधीजन इस चर्चा का लाभ ले सकेंगे, इस आशा के साथ..
शुभातिशुभ
आदरणीय डाॅ छोटेलाल सिंह साहिब आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद सुख़न नवाज़ी और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया। सादर।
आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी, माज़रत के साथ अर्ज़ करना है कि बक़ौल आपके 'जगाने' और 'जलाने' शब्द के कारण 'आने’ के क़ाफिया पर ’जग’ और ’जल’ पूर्ण शब्द निर्धारित हो रहे हैं जो ईता के ऐब या दोष का कारण बना रहे हैं। मैं पहले ही अर्ज़ कर चुका हूँ कि 'जगाने' और 'जलाने' के मूल शब्द 'जग' और 'जल' नहीं हो सकते हैं क्योंकि 'जलाने' से शेष बचा शब्द 'जल' का स्वतंत्र रूप से अर्थ 'पानी' है (जिसका जलने-जलाने से) तथा 'जगाने' से शेष बचा शब्द 'जग' का का स्वतंत्र रूप से अर्थ 'जगत'(जिसका जागने-जगाने से) से कोई सम्बन्ध नहीं है।
उपरोक्त विवेचना के परिप्रेक्ष्य में क़ाफ़िया से बचे उक्त शब्द क़ाफ़िया के मूल स्वभाव से अलग होने के कारण मूल शब्द नहीं हैं अर्थात 'जगाना या जलाना' स्वयं ही मूल शब्द हैं और मूल शब्द का क़ाफ़िया रखना नियमानुसार है। वैसे ईता-ए-ख़फ़ी को नज़र-अंदाज़ किया जा सकता है। - :)) शुभ-शुभ।
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