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इस्लाह के बाद ग़ज़ल
1
है ये इश्क़ की डगर तू ज़रा रख क़दम सँभल के
चला जाएगा वगरना तेरा चैन इस प चल के
2
न ज़ुबान से मुकरना न क़रार तू भुलाना
कि मैं ख़्वाब देखती हूँ तेरे साथ अपने कल के
3
किया आइना शराफ़त का जो तुमने सम्त मेरी
उसे यार देख लेना कभी ख़ुद भी रुख़ बदल के
4
शब-ए-वस्ल पर न बरसें कहीं सरकशी के बादल
तू हवा उड़ा के लेजा ये फ़िराक़ के धुँधलके
5
नहीं शम्स का उजाला न क़मर की रौशनी है
कहाँ जाएँगे बता हम तेरी बज़्म से निकल के
6
नहीं रोकना क़दम तू कभी वहशियों से डर कर
वो रुकेंगे ख़ुद ही "निर्मल" किसी दामिनी से जल के
मौलिक व अप्रकाशित
रचना निर्मल
Comment
आदरणीय समर कबीर सर्, ग़ज़ल तक आने तथा इस्लाह करने के लिए बेहद शुक्रिय: । सर्,आपकी इस्लाह से ग़ज़ल सँवर गई। हार्दिक धन्यवाद।
मुहतरमा रचना भाटिया जी आदाब, ओबीओ के तरही मिसरे पर ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।
'वो पहन के पा में पायल गए क्या ज़रा सा चल के
कई जाम अपने हाथों से शराब के थे छलके'
ये मतला मुझे भर्ती का लगा ।
उ'से तुम भी देख लेना कभी यार रुख़ बदल के'
इस मिसरे में ऐब-ए-तनाफ़ुर है, उचित लगे तो यूँ कहें:-
'उसे यार देख लेना कभी ख़ुद भी रुख़ बदल के'
'कहीं वस्ल पर न बरसे आ के अब्र सरकशी का
ऐ हवा उड़ा ले जा तू ही फ़िराक़ के धुँधलके'
इस शैर का ऊला कमज़ोर है,और सानी मिसरे में 'ऐ' को 1 पर लेना उचित नहीं,यूँ कह सकती हैं:-
'शब-ए-वस्ल पर न बरसें कहीं सरकशी के बादल
तू हवा उड़ा के लेजा ये फ़िराक़ के धुँधलके'
6
'न है शम्स का उजाला न ही रात का अँधेरा
न पता कहाँ को पहुँचेंगे यहाँ से हम निकल के'
इस शैर को यूँ कहा जा सकता है:-
'नहीं शम्स का उजाला न क़मर की रौशनी है
कहाँ जाएँगे बता हम तेरी बज़्म से निकल के'
'नहीं रोकना क़दम तूँ कभी वहशियों से डर कर
वो रुकेगा ख़ुद ही "निर्मल" किसी दामिनी से जल के'
इस शैर में शुतर गुरबा ऐब है,यूँ कह सकती हैं;-
'नहीं रोकना क़दम तू कभी वहशियों से डर कर
वो रुकेंगे ख़ुद ही "निर्मल" किसी दामिनी से जल के'
बाक़ी शुभ शुभ ।
//किस किस मिसरअ को ठीक करना है यह बता दें सुधारने में आसानी होगी।//
वैसे मैं इस लायक़ तो नहीं हूँ लेकिन आपने आग्रह किया है तो बताने की कोशिश करता हूँ। सादर।
1
है ये इश्क़ की डगर तू ज़रा रख क़दम सँभल के मतले का शिल्प कमज़ोर है, ऊला में "है ये" को "ये है" करना बहतर होगा,
चला जाएगा वगरना तेरा चैन इस प चल के सानी मिसरे का शिल्प और भाव स्पष्ट किये जाने की ज़रूरत है।
2
वो पहन के पा में पायल गए क्या ज़रा सा चल के मिसरों में रब्त स्पष्ट नहीं है, "पा में" भर्ती के शब्द हैं, इसकी जगह "आज"
कई जाम अपने हाथों से शराब के थे छलके कर सकते हैं। सानी मिसरे का शिल्प कसावट चाहता है।
3
न ज़ुबान से मुकरना न क़रार तू भुलाना. इस शे'र के ऊला को यूँ कर सकते हैं- "मेरा साथ देने वाले न क़रार तोड़ देना
कि मैं ख़्वाब देखती हूँ तेरे साथ अपने कल के सानी में 'कि मैं' की जगह 'बड़े' करना उचित होगा।
4
किया आइना शराफ़त का जो तुमने सम्त मेरी बहुत ख़ूब।
उसे तुम भी देख लेना कभी यार रुख़ बदल के "ख़ुद"
5
कहीं वस्ल पर न बरसे आ के अब्र सरकशी का दोनों मिसरों के उत्तरार्द्ध के शिल्प और वाक्य विन्यास
ऐ हवा उड़ा ले जा तू ही फ़िराक़ के धुँधलके और 'आ के' व 'ही' में मात्रा पतन ठीक नहीं हैं।
6
न है शम्स का उजाला न ही रात का अँधेरा. ये शे'र भर्ती का है, शिल्प और कथ्य भी स्पष्ट नहीं है।
न पता कहाँ को पहुँचेंगे यहाँ से हम निकल के
7
नहीं रोकना क़दम तूँ कभी वहशियों से डर कर. इस शे'र में शुतरगुर्बा ऐब है 'तूँ' को 'तू' कर लें।
वो रुकेगा ख़ुद ही "निर्मल" किसी दामिनी से जल के
आदरणीय अमीरुद्दीन अमीर जी ग़ज़ल तक आने के लिए बेहद शुक्रिय: । आदरणीय, किस किस मिसरअ को ठीक करना है यह बता दें सुधारने में आसानी होगी।
सादर।
मुहतरमा रचना भाटिया जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है, ग़ज़ल अभी मेहनत चाहती है, बहरहाल प्रयास के लिए आपको बधाई। सादर।
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