212 212 212
1
जाने क्यों इश्क़ के पेच ओ ख़म
ज़ेह्न वालों को भाते हैं कम
2
उनके सर की उठा कर क़सम
हम महब्बत का भरते हैं दम
3
मुस्कुरातीं हैं सब चूड़ियाँ
जब सँवारें वो ज़ुल्फ़ों के ख़म
4
जब जी चाहे बुला लेते हैं
करके पायल की छम-छम सनम
5
होंगे दिन रात मधुमास से
जब भी पहलू में बैठेंगे हम
6
जाएँ जब उनकी आग़ोश में
रौशनी शम्अ की करना कम
7
एक पल में ही मर जाएँगे
देखीं "निर्मल" ने आँखें जो नम
मौलिक व अप्रकाशित
रचना निर्मल
Comment
आदरणीय बृजेश कुमार 'ब्रज' जी, ग़ज़ल तक आने तथा सराहना करने के लिए बेहद शुक्रिय:।
आदरणीय अमीरुद्दीन अमीर जी, देर से जवाब देने के लिए क्षमा चाहती हूँ।
ग़ज़ल तक आने तथा सराहना करने के लिए बेहद शुक्रिय:।
अच्छी ग़ज़ल कही है आदरणीया बधाई...
मुहतरमा रचना भाटिया जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है बधाई स्वीकार करें।
आदरणीय मनोज अहसास जी, हौसला बढ़ाने के लिए शुक्रियः। जी ,बेसब्री से इंतज़ार है।
ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है बाकी गुणीजनों की राय की प्रतीक्षा कीजिये
हार्दिक बधाई
सादर
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