गजल- ज़ुल्फ की जंजीर से ......
2122 2122 2122 212
आश्ना होते अगर हम हुस्न की तासीर से
दिल लगाते हम भला क्यों ज़ुल्फ़ की ज़ंजीर से
खा रहे थे लाख क़समें जो हमारे प्यार की
दे गए वो दर्द लाखों इक नज़र के तीर से
हमसफ़र बन कर चले वो रास्ते में छोड़ कर
भर गए झोली हमारी ग़र्द की जागीर से
मंज़िलों के पास आ के दूर मंज़िंलें हो गई
क्या गिला शिकवा करें हम धड़कनों के पीर से
बाद मुद्दत के मिले इक मोड़ पर हम इस तरह
ज़िन्दगी जैसे मिले रूठी हुई तक़दीर से
लफ़्ज़ सारे खो गए ख़ामोशियों के शोर में
ढूँढते हैं लम्स अपने जिस्म की तहरीर में
सुशील सरना / 13-5-22
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन. अच्छी गजल हुई है। हार्दिक बधाई।
मंजिलों के पास आ के दूर मंजिल हो गई .. मंजिलों के बजाय // मंजिल ॥ किया जा सकता है क्या
शानदार गजल हुई है वाह ..
आदरणीय सुशील सरना जी आदाब, ग़ज़ल विधा में भी अपनी काव्यात्मक योग्यता साबित करने के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें। मुहतरम समर कबीर साहिब ने अरकान की त्रुटि बताने के इलावा बहतर इस्लाह फ़रमाई है। कृपया ग़ज़ल के अरकान सहीह कर लें। हमें बताया गया है कि ग़ज़ल लिखते हुए कोमा, पूर्ण विराम आदि नहीं लगाना चाहिए।
"आश्ना होते अगर हम हुस्न की तासीर से
दिल लगाते हम भला क्यों ज़ुल्फ की जंजीर से" ख़ूबसूरत शे'र हुआ है, मगर सानी मिसरे में 'दिल लगाते' ऐब-ए-तनाफ़ुर और दोनों मिसरों में 'हम' शब्द खटक रहा है, मुनासिब समझें तो सानी मिसरा यूँ कर सकते हैं :
"दिल भला क्यों ही लगाते ज़ुल्फ़ की ज़ंजीर से"
शे'र नंo 4 की शेरियत पर काम करने की ज़रूरत है।
भाषा की शुद्धता के लिये "ज़ुल्फ़, ज़ंजीर, क़समें, मंज़िलों, मंज़िल ज़िंदगी, तक़दीर, लफ़्ज़ और ख़ामोशियों" में नुक़्ता लगा लिजिए।
जनाब सुशील सरना जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा हुआ है, और इस विधा में भी आप कामयाब हुए,हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
अरकान आपने ग़लत लिखे हैं,इस ग़ज़ल के अरकान ये हैं:-
2122 2122 2122 212
'भर गए झोली हमारी ग़र्द की जागीर से'
इस मिसरे में 'ग़र्द' को "गर्द" कर लें ।
'क्या गिला शिकवा करें हम धड़कनों के पीर से'
इस मिसरे में 'के' को "की" कर लें "पीर' शब्द स्त्रीलिंग है ।
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