तुम फूल कली तुम चन्द्र मुखी तुम स्वर्ग परी चित चंचल हो
तुम लौकिक केवल देह नहीं मकरन्द भरा नव कोंपल हो
तुम भ्रांति नहीं अनुभूति प्रिये तुम पुष्प कली सम कोमल हो
तुम पादप पल्लव हार प्रिये तुम गंग नदी सम निर्मल हो।।1
तुम निश्छल प्रेम भरी गगरी ऋतु पावस सी मनभावन हो
तुम हो इक नाम समर्पण का तुम रूप प्रसून सुहावन हो
तुम प्राणप्रिया शुचिता वनिता तुम ही रखती घर पावन हो
तुम प्रान सुधा घनश्याम घटा उर में बरसे वह सावन हो।।2
समझा तुमने मन की गति को तन स्पर्श करूँ अधिकार दिया
समता ममता अरु प्रेम सुधा इक बार नहीं हर बार दिया
उजड़ा बिखरा घर आँगन था जिसको तुमने परिवार दिया
तुम पे तन अर्पण मैं कर दूँ इतना तुमने प्रिय प्यार दिया।।3
नाथ सोनांचली
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आद0 लक्ष्मण धामी मुसाफिर जी सादर अभिवादन।
हृदयतल से आभार आपका
आ. भाई नाथ सोनांचली जी, सादर अभिवादन । सुंदर रचना हुई है । हार्दिक बधाई।
तुम लौकिक केवल देह नहीं "" की जगह ऐसा होना चाहिए मेरे हिसाब से, विचार कीजिएगा। सादर
तुम केवल लौकिक देह नहीं
आद0 समर कबीर साहब सादर प्रणाम। रचना पर आपकी गरिमामयी उपस्थिति मुझे गर्वान्वित करती है।
आपका सुझाव सिर आँखों पर
एक निवेदन ये कि ये सीखने सिखाने का मंच है इसलिये रचना के साथ उसका विधान लिख देना बहतर होता है I""
आगे से इसका ध्यान रखूँगा
जनाब नाथ सोनांचली जी आदाब, अच्छी छंद रचना हुई है, बधाई स्वीकार करें I
'तुम लौकिक केवल देह नहीं मकरन्द भरा नव कोंपल हो'--- इस पंक्ति में 'कोंपल' शब्द स्त्रीलिंग है, देखियेगा I
एक निवेदन ये कि ये सीखने सिखाने का मंच है इसलिये रचना के साथ उसका विधान लिख देना बहतर होता है I
आद0 अम्न सिन्हा जी सादर अभिवादन। कोटिशः आभार आपका
आदरणीय नाथ सोनांचली जी,
बहुत मनमोहक रचना हेतु बधाई।
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