१२२/१२२/१२२/१२२
समझ मत उसे यूँ बुरा और होगा
तपेगा दुखों में खरा और होगा।।
*
उजाला कभी जन्म लेगा वहाँ भी
अँधेरा कहाँ तक भला और होगा।।
*
रवैय्या है बदला यहाँ चाँद ने अब
रहेगा कहीं पर पता और होगा।।
*
लहू में है उस के वही साहूकारी
कहा और होगा लिखा और होगा।।
*
करो जुर्म जमकर ये अन्धेर नगरी
सजा को तुम्हारी गला और होगा।।
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मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
Comment
आ. भाई अमीरुद्दीन जी, सादर अभिवादन। गजल आपको अच्छी लगी लेखनसफल हुआ। उत्साहवर्धन व स्नेह के लिए हार्दिकधन्यवाद।
आ. भाई जेतन जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति, उत्साहवर्धन , स्नेह और सुझाव के लिए हार्दिक हार्दिक आभार।
आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति, उत्साहवर्धन व स्नेह के लिए हार्दिक धन्यवाद।
आदरणीय लक्ष्मण धामी भाई मुसाफ़िर जी आदाब, अच्छी रचना हुई है बधाई स्वीकार करें।
"लहू में है उस के वही साहूकारी
कहा और होगा लिखा और होगा" वाह.. लाजवाब।
आदाब , भाई लक्ष्मण धामी मुसाफिर बह्रे मुतकारिब मुसम्मन सालिम में कही बढ़िया हुई गज़ल, बधाई ।तीसरे शे'र की शुरुआत रवैया से होनी चाहिए, न कि 'रवैय्या' से" ! आखिरी शे'र को पढ़कर मुझे अल्लामा इकबाल याद आ गए, "भरी बज़्म में राज़ की बात कह दी / बड़ा बेअदब हूँ सज़ा चाहता हूँ"!
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