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ख़्वाबों को ज़रा आँख के पानी से निकालो
इन बुलबुलों को अश्क-फ़िशानी से निकालो
ईमान की कश्ती पे मुहब्बत की मसर्रत
इस कश्ती को तूफ़ां की रवानी से निकालो
इस रास्ते पे वस्ल की उम्मीद नहीं है
तरकीब कोई राह पुरानी से निकालो
ग़ज़लों को रखो नफ़रती शोलों से बचाकर
अश'आर सभी लफ़्ज़ गिरानी से निकालो
इक रोज़ गुज़र जाऊँगा ज्यूँ वक़्त गुज़रता
भावों में रखो मुझको मआनी से निकालो
ग़र याद उसे करते ही आ जाते हैं आँसू
'ब्रज' इतना बुरा है तो कहानी से निकालो
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'
Comment
आदाब, श्रद्धेय समर कबीर साहब, आपने इस नाचीज़ की टिप्पणी का संज्ञान लिया, आपका आभारी हूँ! वस्तुतः मेरा संकेत ऊला के संदर्भ में सानी में सुधार की अपेक्षा से था! कहना न होगा कि शे'र दोनों मिसरों का समन्वय है, और कुल कथन है, फिर एक ही स्टेटमेंन्ट दो बार conditional parts of speech, (शर्त सम्बंधित अव्यय 'गर', ऊला में, फिर सानी में 'तो' कैसे आ सकते है), इसको लेकर मैंने 'सानी में सुधार की गुंजाइश बताई थी! आशा है, आप मेरी बात से सहमत होंगे!
मात्रा सम्बंधित मैंने कुछ नहीं कहा है, आप स्वयं देखें!
सादर !
/ हाँ मकते का सानी," ब्रज इतना बुरा है तो कहानी से निकालो", मेरी नज़र में सुधार चाहता है//
भाई चेतन प्रकाश जी इस मिसरे में 'ब्रज' का वज़्न 2 है, और कोई संशय हो तो विस्तार से बताएँ, सिर्फ़ इतना लिखना काफ़ी नहीं कि मिसरा सुधार चाहता है,क्यों सुधार चाहता है ये भी बताने का कष्ट करें ।
आदरणीय अमीरुद्दीन जी ग़ज़ल की विस्तृत समीक्षा के लिए हार्दिक अभिनंदन करता हूँ...मतले के लिए आपका सुझाव बड़ा खूबसूरत है...गर और तो समानार्थी नहीं है शायद...गर मतलब यदि और यदि के साथ तो का इस्तेमाल कर सकते हैं...
आदरणीय चेतन प्रकाश जी ग़ज़ल पे आपकी शिरक़त और हौसलाफजाई के लिए सादर आभार...आपकी सलाह पे जरूर ध्यान दूँगा...
आदरणीय बृजेश कुमार ब्रज जी आदाब, बहुत प्यारी और ख़ूबसूरत ग़ज़ल हुई है शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ।
'ख़्वाबों को कभी आँख के पानी से निकालो' इस मिसरे में 'कभी' की जगह 'ज़रा' कहने से रवानी और रब्त बढ़ जायेगा।
'गर याद उसे करते ही आ जाते हैं आँसू
'ब्रज' इतना बुरा है तो कहानी से निकालो' इस शे'र में बोल्ड किये गये 'गर' और 'तो' शब्दों का अर्थ समान हैं, 'गर' के स्थान पर 'क्यों' किया जा सकता है।
आदाब, जनाब 'ब्रज ', अच्छा प्रयास हुआ, इस बह्र में । हाँ मकते का सानी," ब्रज इतना बुरा है तो कहानी से निकालो", मेरी नज़र में सुधार चाहता है। शुभ प्रभात
आदरणीय समर कबीर जी सादर नमस्कार...ग़ज़ल में आपकी बारीक़ नजर को कोई अन्य भाषाई और व्याकरणीय त्रुटि नही मिली ये मेरे लिए उत्साह की बात है...इस खूबसूरत बह्र पे ये पहली ग़ज़ल लिख पाया हूँ...और आपका सुझाव 'उसे' के साथ मक़्ता और निखार पायेगा...सादर
जनाब बृजेश कुमार 'ब्रज' जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें I
'ग़र याद मुझे करते ही आ जाते हैं आँसू
'ब्रज' इतना बुरा है तो कहानी से निकालो'--इस शे`र के ऊला में उचित लगे तो 'मुझे की जगह "उसे " कर लें I
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