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हरिक धड़क पे तड़प उठें बद-हवास आँखें
बिछड़ के मुझसे कहाँ गईं ग़म-शनास आँखें
कहाँ गगन में छुपे हुये हो ओ चाँद जाकर
तमाम शब अब किसे निहारें उदास आँखें
बिछड़ के तुझसे सिवाय इसके रहा नहीं कुछ
कि एक बिगड़ा हुआ मुक़द्दर क़यास आँखें
यक़ीन होता नहीं कि कैसे चला गया वो
दिखा रही थीं डगर उसी की उजास आँखें
हँसी ग़ज़ल सी गुलों सा चहरा था महजबीं का
मचल रहे थे गुलाब लब पे कपास आँखें
उदासियाँ ही उदासियाँ हैं हद्द-ए-नजर तक
लुटा लुटा 'ब्रज' ह्रदय नगर है तो आस आँखें
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'
Comment
आदरणीय अशोक जी...ग़ज़ल पे आपकी बारीक नजर के लिए शुक्रिया...बिल्कुल ध्यान रखूँगा आपकी बात का...सादर
आदरणीय बृजेश कुमार जी सादर, अच्छी ग़ज़ल हुई है आपकी. सुझावों पर अमल से निखार आया भी है. बहुत-बहुत बधाई स्वीकारें. ह्रदय/हृदय ...लिखा करें. सादर .
उचित है आदरणीय समर जी...ऐसा किया जा सकता है...जल्द ही सम्पूर्ण सुधार के साथ रचना एडिट करूँगा...सादर
//एक जिज्ञासा और है क्या "मुस्कुराहट और हरारत" एक साथ काफ़िये के रूप में सहीह है//
नहीं,ये दुरुस्त नहीं हैं ।
//कहाँ गगन में छुपे हुये हो ओ चाँद तारो' -आदरणीय यहाँ किसी एक व्यक्ति को ध्यान में रखकर बात कही है इसलिए सिर्फ 'चाँद' को लिया है//
ऐसा है तो 'छुपे हुए हो ऒ' की जगह यूँ कहना उचित होगा:-
'कहाँ गगन में छुपा हुआ है तू चाँद जाकर'
जी आदरणीय महेंद्र जी...एक नई जानकारी हुई...यही तो इस मंच की विशेषता है...आपका धन्यवाद
आदरणीय समर जी ग़ज़ल की विस्तृत समीक्षा के लिए आभार व्यक्त करता हूँ...काफ़िये को लेकर नई जानकारी हुई...रचना को ग़ज़ल का रूप देने की कोशिश करता हूँ...एक जिज्ञासा और है क्या "मुस्कुराहट और हरारत" एक साथ काफ़िये के रूप में सहीह है?
'हरिक धड़क पे तड़प उठें बद-हवास आँखें'--इस मिसरे में 'धड़क' क्या है ?यहाँ धड़क दिल के धड़कने को लिया है...जब दो मनुष्य सच्चे प्रेम में हों तो एक के धड़कते दिल किसी भी कारण से दूसरे की आँखों का व्याकुल होने का भाव है।
'कहाँ गगन में छुपे हुये हो ओ चाँद जाकर'--इस मिसरे को उचित लगे तो यूँ कहें :
''कहाँ गगन में छुपे हुये हो ओ चाँद तारो' -आदरणीय यहाँ किसी एक व्यक्ति को ध्यान में रखकर बात कही है इसलिए सिर्फ 'चाँद' को लिया है।
बाकी आपके बताए सुझाव सम्मिलित करता हूँ ...सादर
आदरणीय बृजेश जी, इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए। आपकी इस प्रस्तुति से मंच को भी क़ाफ़िये पर नयी जानकारी मिली।
जनाब बृजेश कुमार 'ब्रज' जी आदाब , ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है लेकिन कुछ अशआर में क़वाफ़ी ग़लत हो गए हैं, बहरहाल इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें.
//दरअसल कई जगह 'त' और 'थ' को लेकर काफ़िया देखा है और 'स' एवं 'श' भी पढ़े हैं.//
'त' और 'थ' के इसलिए दुरुस्त माने जाते हैं कि 'थ' उर्दू में जब लिखते हैं तो पहले 'त' आता है उसके बाद उसमें 'ह दो चश्मी' आता है , लेकिन 'स' और 'श' में ऐसा कुछ नहीं है जिस के कारण इसे तस्लीम किया जाए, बहतर ये होगा कि जिन अशआर में 'श' के क़ाफ़िये लिए हैं उन्हें दुरुस्त कर लें,
अब आता हूँ ग़ज़ल की बारीकियों पर.
'हरिक धड़क पे तड़प उठें बद-हवास आँखें'--इस मिसरे में 'धड़क' क्या है ?
'कहाँ गगन में छुपे हुये हो ओ चाँद जाकर'--इस मिसरे को उचित लगे तो यूँ कहें :
''कहाँ गगन में छुपे हुये हो ओ चाँद तारो'
'कि एक बिगड़ा हुआ मुकद्दर निराश आँखें'--इस मिसरे में 'मुकद्दर' को "मुक़द्दर" कर लें.
'हँसी ग़ज़ल सी गुलों सा चेह्रा था महजबीं का' --इस मिस्रेव में 'चेह्रा' को "चहरा" लिखें.
'उदासियाँ ही उदासियाँ हैं हद-ए-नजर तक'-- इस मिसरे में 'हद-ए-नज़र' शब्द ठीक नहीं है सहीह शब्द है "हद्द-ए-नज़र" देखिएगा.
आदरणीय अमीरुद्दीन जी रचना पटल पे आपकी उपस्थित स्वागतयोग्य है...आपने जिस दोष को इंगित किया है वो जानबूझ कर किया गया है...दरअसल कई जगह 'त' और 'थ' को लेकर काफ़िया देखा है और 'स' एवं 'श' भी पढ़े हैं...अभी याद नहीं आ रहा ...मैं कोशिश कर रहा हूँ कि वो रचनाएं प्रस्तुत कर सकूँ... ओ बी ओ पे इसे पोस्ट करने का यही उद्देश्य है कि बात जरा साफ हो...क्या 'त' और 'थ' ...'स' एवं 'श' के काफ़िये सही हैं या नहीं... सादर
आदरणीय बृजेश कुमार ब्रज जी आदाब, मतले में मुक़र्रर किया गया क़ाफ़िया 'आस' ग़ज़ल के कई अशआर में बदल गया है, ग़ौर फ़रमाएं। बहरहाल इस प्रस्तुति के लिए बधाई स्वीकार करें।
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