जिज्ञासा
पार्क से आते ही मोनू ने सवाल किया, ‘पापा, अपनी कार रात को झुग्गीवाले मुहल्ले में क्यों जाती है?’
‘बिजनेस के सिलसिले में?’
‘तो उसमें चढ़कर लड़कियाँ कहाँ जाती हैं?’
‘काम पर, बेटे।’ सेठ ने बेटे को संतुष्ट करना चाहा।
‘रात को कौन-सा काम होता है,पापा?’
‘ढेर-सारे काम हैं,बेटे।जैसे कॉल सेंटर वगैरह,जो रात को भी चलते हैं।’
‘कॉल गर्ल का धंधा भी?’ बेटे ने जिज्ञासा जाहिर की।
‘क्या कह रहा है, बेटा? कहाँ सुना तुमने, यह सब?’ सेठ हड़बड़ाकर बोला।
‘रज्जुआ मिला था। बगल की झुग्गी का है।रोज की तरह पार्क के गेट पर बैठा था। अपनी कार देख रोने लगा। चिल्लाया, ‘यही वह कार है ...यही मेरी माँ को ले गई... वह फिर नहीं आई।’
‘और क्या बोला,बेटा?’
‘जिसका काम अच्छा हो,उसे रख लेते हैं। कुछ और लड़कियाँ गईं, रह गईं। घरवालों को कुछ रुपल्ले मिले, मुझे नहीं।’ मोनू ने जो कुछ रज्जुआ से सुना था, सब बयां कर दिया।
‘कल हम दोनों पार्क चलेंगे।पता करेंगे कि क्या हुआ था?’
जी पापा।’
फिर पार्क के गेट पर कभी रज्जुआ नहीं मिला।
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
Comment
आपका आभार आदरणीय बृजेश जी।
आदरणीय मनन जी लघुकथा का सत्य को चित्रित करता हुआ विषय बहुत सटीक है...सादर
बढ़िया लघुकथा है आदरणीय मनन जी। ढेरों बधाई स्वीकार कीजिए।
आदरणीय लक्ष्मण भाई जी, आपका आभार। नमन।
आ. भाई मनन जी, सादर अभिवादन। सुन्दर लघुकथा हुई है । हार्दिक बधाई स्वीकारें।
आदरणीय रवि जी, आपका शुक्रिया।
आदरणीय मनन कुमार सिंह जी, नमस्कार। आपकी ये लघुकथा बहुत अच्छी लगी, इस पर आपको बधाई और शुभकामनाएँ!
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