अरकान : 2122 2122 212
ज़िन्दगी की है ये मेरी दास्ताँ
तुहमतें, रुसवाइयाँ, नाकामियाँ
आए थे जब हम यहाँ तो आग थे
राख हैं अब, उठ रहा है बस धुआँ
दिल लगाने की ख़ता जिनसे हुई
उम्र भर देते रहे वो इम्तिहाँ
सोचता हूँ क्या उसे मैं नाम दूँ
जो कभी था तेरे मेरे दरमियाँ
मैं अकेला इश्क़ में रहता नहीं
साथ रहती हैं मेरे तन्हाइयाँ
कहने को तो कब से मैं आज़ाद हूँ
पाँव में अब भी हैं लेकिन बेड़ियाँ
जीते जी लेता नहीं कोई ख़बर
एक दिन ढूँढेंगे सब मेरे निशाँ
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय समर कबीर सर। दिल से आभारी हूँ।
जनाब महेन्द्र कुमार जी आदाब, अच्छी ग़ज़ल कही आपने , बधाई स्वीकार करें I
तोहमतें ---"तुहमतें"
आदरणीय बृजेश जी, आभारी हूँ। बहुत शुक्रिया।
बहुत शुक्रिया आदरणीय Zaif जी। हार्दिक आभार।
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, आभारी हूँ। दिल से शुक्रिया।
वाह आदरणीय महेंद्र जी वाह...क्या ख़ूब ग़ज़ल कही...बधाई
जीते जी लेता नहीं कोई ख़बर
एक दिन ढूँढेंगे सब मेरे निशाँ
क्या कहने!
आ. भाई महेन्द्र जी, सादर अभिवादन। खूबसूरत गजल हुई है। हार्दिक बधाई।
आदरणीय साथियो,
रास्ता मेरा है दुनिया से अलग
क्यों चलेगा मेरे पीछे कारवाँ
यह शेर भी इसी ग़ज़ल का हिस्सा है। चूँकि यह पहले फेसबुक पर प्रकाशित हो चुका था इसलिए इसे ग़ज़ल के साथ नहीं दिया।
आदरणीय रवि भसीन जी, दिल से आभारी हूँ। बहुत-बहुत शुक्रिया।
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