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ग़ज़ल : ज़िन्दगी की है ये मेरी दास्ताँ

अरकान : 2122 2122 212

ज़िन्दगी की है ये मेरी दास्ताँ

तुहमतें, रुसवाइयाँ, नाकामियाँ

आए थे जब हम यहाँ तो आग थे

राख हैं अब, उठ रहा है बस धुआँ

दिल लगाने की ख़ता जिनसे हुई

उम्र भर देते रहे वो इम्तिहाँ

सोचता हूँ क्या उसे मैं नाम दूँ

जो कभी था तेरे मेरे दरमियाँ

मैं अकेला इश्क़ में रहता नहीं

साथ रहती हैं मेरे तन्हाइयाँ

कहने को तो कब से मैं आज़ाद हूँ

पाँव में अब भी हैं लेकिन बेड़ियाँ

जीते जी लेता नहीं कोई ख़बर

एक दिन ढूँढेंगे सब मेरे निशाँ

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Mahendra Kumar on October 26, 2022 at 7:45am

बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय अमीरुद्दीन जी। हृदय से आभारी हूँ।

Comment by रवि भसीन 'शाहिद' on October 25, 2022 at 11:01am

आदरणीय महेंद्र कुमार जी, सादर अभिवादन। बहुत उम्द: ग़ज़ल कही है आपने, सारे अश'आर ख़ूबसूरत हैं, और मतला तो लाजवाब है! आपको ढेरों बधाई और शुभकामनाएँ!

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on October 23, 2022 at 9:39am

आदरणीय महेंद्र कुमार जी आदाब, ख़ूबसूरत ग़ैर मुरद्दफ़ ग़ज़ल हुई है दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाएं।

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