2122 2122 2122 212
मैं अँधेरी रात हूंँ और शम्स के अनवर-से आप
शाम-सी मुझ में उदासी, सुब्ह के मंज़र-से आप
जाने कैसे मिलना होगा अपना इक मे'यार पर
मैं ज़मीं की ख़ाक-सी हूंँ चर्ख़ के मिम्बर-से आप
जो भी आया चल दिया वो मुझ से हो कर आप तक
मैं अधूरी रहगुज़र हूँ और मुकम्मल घर-से आप
क्यों पसंद आये किसी को भी कभी होना मेरा
मैं कि अनचाही सी बेड़ी क़ीमती ज़ेवर-से आप
आपके बिन इस जहांँ में कुछ नहीं मेरा वजूद
मैं हूंँ मानंद-ए-मुजस्सम और मेरे आज़र-से आप
तिश्नगी सबकी मिटा कर भी रही मैं तिश्ना लब
मैं कि इक प्यासी नदी हूँ और मेरे सागर-से आप
मैं नहीं हसरत किसी की, आप सब की 'आरज़ू'
मैं हूँ इक मा'मूली पत्थर और हैं गौहर-से आप
स्वरचित व मौलिक
Comment
//मानन्द-ए-मुजस्सम" का अर्थ मूर्ति के जैसे लिया है //
'मुजस्सम' का अर्थ है ,जिस्म वाला, और 'मुजस्सम:' का अर्थ होता है मूर्ति, अब आप ख़ुद देख लें दोनों का फ़र्क़ ।
मोहतरम बृजेश कुमार 'ब्रज जी सादर नमस्ते, हौसला अफ़ज़ाई के लिए हार्दिक आभार
मोहतरम जनाब Ravi Shukla जी आदाब, हौसला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से शुक्रिया, अभी एडिट करती हूं मोहतरम।
मोहतरम जनाब Samar kabeer साहब आदाब अपना क़ीमती वक़्त ख़र्च करके ख़ूबसूरत इस्लाह के लिए तहे दिल से शुक्रिया,
मिम्बर और मानन्द की वर्तनी अभी सुधारती हूं "मानन्द-ए-मुजस्सम" का अर्थ मूर्ति के जैसे लिया है मोहतरम । बा अदब
आदरणीया अंजुमन 'आरज़ू' जी , उम्दा ग़ज़ल कही है आपने बधाई स्वीकार करें I उर्दू अल्फ़ाज पर आदरणीय समर साहब के मशवरे पर गौर करें ।
बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल हुई आदरणीया...बधाई
मुह्तामा अंजुमन 'आरज़ू' जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें I
'मैं ज़मीं की ख़ाक-सी हूंँ चर्ख़ के मिंबर-से आप'-- इस मिसरे में ',मिंबर' को "मिम्बर" लिखें I
'मैं हूंँ मानिंद-ए-मुजस्सम और मेरे आज़र-से आप' पहली बात, इस मिसरे में सहीह शब्द "मानन्द" है, दूसरी बात "मानन्द-ए-मुजस्सम" का अर्थ क्या हुआ ?
बाक़ी शुभ शुभ I
मोहतरम Aazi Tamaam जी, ग़ज़ल तक पहुंचने और हौसला अफ़जाई के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया
वाह आ बहुत ख़ूब ग़ज़ल हुई बधाई स्वीकार करें
आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर जी, ग़ज़ल तक पहुंचने और हौसला अफ़जाई के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया
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