ग़ज़ल
१२२२ १२२२ १२२२ १२२२
उजाला इसलिए कमरे में पहले सा नहीं रहता
हमारे साथ अब वो चाँद सा चहरा नहीं रहता
ग़िलाज़त ही ग़िलाज़त है सियासत तेरी बस्ती में
यहाँ आकर कोई भी शख़्स पाकीज़ा नहीं रहता
जूनूँ के दश्त में जिस दिन से दाख़िल हो गया हूँ मैं
मेरी दीवानगी पे दोस्तो पहरा नहीं रहता
उसी को मंज़िल-ए-मक़सूद मिलती है ज़माने में
जो सर पर हाथ रख कर दोस्तो बैठा नहीं रहता
बुराई पीठ पीछे जो किया करते हैं लोगों की
मैं ऐसे दोस्तों के साथ दानिस्ता नहीं रहता
ग़रीबों में ख़ुशी तक़सीम जो करता है वो इंसाँ
ख़ुदा के फ़ज़्ल से दुनिया में अफ़सुर्दा नहीं रहता
हमारी आपकी तो बात ही क्या है 'समर' साहिब
ख़ुदा से हाल चींंटी का भी पोशीदा नहीं रहता
'समर कबीर'
मौलिक व् अप्रकाशित
Comment
जनाब निलेश जी बहुत शुक्रिय: आपका ।
मुहतरमा रचना भाटिया जी बहुत शुक्रिय: आपका ।
आ. समर सर.
बहुत ख़ूब ग़ज़ल हुई है. बधाई स्वीकार करें.
जो सर पर हाथ रख कर दोस्तो बैठा नहीं रहता.. यहाँ भाव हाथ पर हाथ धर कर बैठने का का है ...अमूमन सर पकड़ कर बैठना मुहावरे में आता है. देखिएगा ..
सादर
आदरणीय समर कबीर सर् सादर नमस्कार। वाह वाह बेहतरीन ग़ज़ल हुई।शे'र दर शे'र दाद क़ुबूल करें।
बहुत शुक्रिय: भाई रामबली गुप्ता जी ।
मंच पर आपका पुनः स्वागत है ।
वाह वाह भाई साहब क्या कहने एक एक शेर लाज़वाब हुआ है। दिली मुबारकबाद पेश है।
बहुत शुक्रिय: जनाब तपन दुबे जी ।
समर सर बड़ी अच्छी गजल हुईं है। बड़ा अच्छा लगा पड़ कर। बहुत बहुत बधाई।
बहुत शुक्रिय: जनाब सुशील सरना जी ।
बहुत शुक्रिय: मुहतरमा रचना भाटिया जी ।
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