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बारहा साहिल की जानिब लह’र क्यूँ आती रही

सर पटकती पाँव पड़ती रोती चिल्लाती रही.
.
ओस में भीगे हुए इक गुल को नज़ला हो गया
देर तक तितली लिपटकर उस को गर्माती रही.
.
इक नदी की चाह में रोया समुन्दर ज़ार ज़ार
आई समझाने हवा जो पीठ सहलाती रही. 
.
अब मुलायम से ख़यालों का बहुत फ़ुक़्दान है
इश्क़ करने की जो फ़ुर्सत थी वही जाती रही.
.
मैं उलझ कर आ गया था ज़िन्दगी के सामने
सो वो बेचारी मुझे ता-उम्र सुलझाती रही.
.
क़ामयाबी थी सहेली चाहती भी थी मुझे
थामने से हाथ मेरा पर वो शर्माती रही.
.
निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित 

Views: 268

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 29, 2023 at 1:47pm

धन्यवाद आ. रचना जी

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 29, 2023 at 1:47pm

धन्यवाद आ. लक्ष्मण जी

Comment by Rachna Bhatia on May 29, 2023 at 1:22pm

आदरणीय नीलेश नूर जी नमस्कार। बेहतरीन ग़ज़ल हुई है।बधाई स्वीकार करें।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 28, 2023 at 6:07pm

आ. भाई नीलेश जी, सादर अभिवादन। लाजवाब गजल हुई है। हार्दिक बधाई। 

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