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मिज़ाज़-ए-दश्त पता है न नक़्श-ए-पा मालूम
हमारे दर्द-ए-जिगर का भी किसको क्या मालूम
करेगा दर्द से आज़ाद या जिगर छलनी
तुम्हारे तीर-ए-नज़र की किसे रज़ा मालूम
न जाने कैसे थमेगा ये सिलसिला ग़म का
कोई बताये किसी को हो गर ज़रा मालूम
झुकाएं कौन से दर पर ज़बीं ये दीवाने
वफ़ा का कौन सा घर है किसी को क्या मालूम
क़फ़स में क़ैद परिंदे की बेबसी देखो
न हश्र-ए-क़ैद पता है न है ख़ता मालूम
डरेगा वो जो सतायेगा बेगुनाहों को
हमें ख़ुदा का पता है न कुफ़्र का मालूम
फ़ज़ा में हमको महब्बत लुटाना आता है
किसी दुआ का पता है न बद्दुआ मालूम
अजीब शय है ख़ुदा की ये काइनात आज़ी
न वक़्त-ए-मर्ग पता है न इब्तिदा मालूम
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
बहुत बहुत शुक्रिया आ धामी सर इस ज़र्रा नवाज़ी का
आ. भाई आज़ी तमाम जी, सादर अभिवादन। अच्छी गजल हुई है। हार्दिक बधाई।
बहुत बहुत शुक्रिया आ ममता जी ज़र्रा नवाज़ी का
बहुत बहुत शुक्रिया ज़र्रा नवाज़ी का आ जयनित जी
ग़ज़ल तक आने व इस्लाह करने के लिए सहृदय शुक्रिया आ समर गुरु जी
मक़्ता दुरुस्त करने की कोशिश करता हूँ सादर 🙏
अच्छी ग़ज़ल हुई बधाई स्वीकार करें आदरणीय
जनाब आज़ी तमाम जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।
'न वक़्त-ए-मर्ग मुकर्र न इब्तिदा मालूम'
वक़्त-ए-मर्ग तो मुक़र्रर है प्रिय, ग़ौर करें ।
मक़्ते के सानी में "
आदरणीय आज़ी तमाम जी, सादर नमस्कार! बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल कही है आपने। इसके लिए आपको हार्दिक बधाई प्रेषित करता हूँ।
शायद आख़िरी शेर के दूसरे मिसरे में "मुकर्रर" की बजाय "मुकर्र" टाइप हो गया है।
बहुत बहुत शुक्रिया इस ज़र्रा नवाज़ी का आ चेतन जी
जनाब, आज़ी आदाब, अच्छी ग़ज़़ल हुई, मुबारक हो !
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