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1222-1222-1222-1222

जो आई शब, जरा सी देर को ही क्या गया सूरज।
अंधेरे भी मुनादी कर रहें घबरा गया सूरज।

चमकते चांद को इस तीरगी में देख लगता है,
विरासत को बचाने का हुनर समझा गया सूरज।

उफ़क तक दौड़ने के बाद में तब चैन से सोया,
जमीं से भी जो जाते वक्त में मिलता गया सूरज।

तुम्हें रोना है जितनी देर, रो लो शाम का रोना,
मगर दीपक की बाती पर सिमट कर आ गया सूरज।

वो आईना दिखाने में बहुत मसरूफ़ थे लेकिन,
बिना बोले इधर बे-इंतिहा हंसता गया सूरज।

बहुत महंगी पड़ी मौका परस्ती बादलों को भी,
उन्हीं को चीर के जब रौशनी फैला गया सूरज।

(मौलिक व अप्रकाशित)

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey 21 hours ago

सूरज के बिम्ब को लेकर क्या ही सुलझी हुई गजल प्रस्तुत हुई है, आदरणीय मिथिलेश भाईजी. वाह वाह वाह ! 

प्रत्येक शेर में गझिन भावों को करीने से बुना गया है. ऐसा कि मतला ही एक पाठक को अपने बहाव में ले लेता है. 

जो आई शब, जरा सी देर को ही क्या गया सूरज।
अंधेरे भी मुनादी कर रहें घबरा गया सूरज ... ..    क्या ही कमाल का मतला है. कमतर विचारवाले दल के छुटभइयों द्वारा मचाये जा रहे कुहराम या बवाल और चलाये जा रहे विमर्श को सशक्त शब्द मिले हैं. अलबत्ता, वाक्यांश ’मुनादी कर रहे’ होगा. .. 

चमकते चांद को इस तीरगी में देख लगता है,
विरासत को बचाने का हुनर समझा गया सूरज ... .. वाह ! किसी गुरुतर व्यक्तित्व के स्वामी के अशक्त होने पर परिवार की विकट परिस्थितियों में अन्य सदस्य द्वारा अपने कर्त्तव्य निर्वहन के लिए संलग्न रहना खूबसूरती से बाँधा गया है. भाव-विभोर करता शेर हुआ है.   

उफ़क तक दौड़ने के बाद में तब चैन से सोया,
जमीं से भी जो जाते वक्त में मिलता गया सूरज।  ...  त्वदीयं वस्तु गोविन्द, तुभ्यमेव समर्पये का सुंदर पहलू, कि सब ठीक से रहना...

तुम्हें रोना है जितनी देर, रो लो शाम का रोना,
मगर दीपक की बाती पर सिमट कर आ गया सूरज। .. क्या ही महीन भाव हैं ! दायित्व निर्वहन चिंता मात्र करने, रोने-चिल्लाने से नहीं, बल्कि अपने आपको झोंक देने से होता है. . 

वो आईना दिखाने में बहुत मसरूफ़ थे लेकिन,
बिना बोले इधर बे-इंतिहा हंसता गया सूरज। ........ वाह. अधजल गगरी छलकती ही है, भरी गगरिया चुप्पे जाये. 

बहुत महंगी पड़ी मौका परस्ती बादलों को भी,
उन्हीं को चीर के जब रौशनी फैला गया सूरज .....  कुशल, सक्षम लोगों का कौशल बहुत दिनों तक नकारा नहीं जा सकता. वह उभर कर प्रकाश में आता ही आता है. 

व्यंजना भाव का सुंदर निर्वहन करती इस बेहतरीन प्रस्तुति ने मुग्ध कर दिया, आदरणीय मिथिलेश जी. हार्दिक बधाइयाँ 

शुभातिशुभ

 

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on Monday

जय हो, बेहतरीन ग़ज़ल कहने के लिए सादर बधाई आदरणीय मिथिलेश जी। 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on October 7, 2025 at 9:43pm

आदरणीय लक्ष्मण धामी जी मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक धन्यवाद। बहुत-बहुत आभार। सादर

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 28, 2025 at 4:45am

आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। बहुत सुंदर गजल हुई है। हार्दिक बधाई।

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