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कवि को गढ़े-अनगढ़े मात्रिक छंदों और ग़ज़लों में पढ़ते रहने की आदत को ’आदमखोर’ की औचक प्रस्तुति से एक पाठक के तौर पर मुझे बड़ा जबर्दस्त झटका लगा है. लेकिन मनोहारी आश्चर्य यह है कि यह झटका सुखद है. साहित्याकाश में ऐसे झटके यदि लगते हैं तो रचना कर्म सबल, सार्थक और सुदृढ़ होता है.
रचना जबर्दस्त ढंग से कसी हुई किन्तु सीधी है. पूरी कविता में एक शब्द तक अनायास नहीं है. यह इस बात की बखूबी हामी है कि विकास और प्रगति के नाम पर होते अनगढ़ मज़ाक से कवि कितना विचलित है. यह तथाकथित विकास हाशिये पर हाँफते समुदाय की उद्भ्रांत मनस और ऊहापोह से कितना असंपृक्त है. ’यह विकास किनके लिये’ का प्रस्तुत प्रश्न बड़ी तीखी आवाज़ में सामने आता है और कानों में अपने होने का कर्कश ’श्रिल’ पैदा नहीं करता, बल्कि कानों के नीचे करारे-करारे थप्पड़ रसीद करता दीखता है.
किसी समाज के वज़ूद की आत्मा उसकी अनवरत संसृत होती संस्कृति ही हुआ करती है और इसके लगातार त्रस्त और विकल होते जाने को कवि के हृदय ने बिलबिला कर महसूस किया है.
तुम समेटो अपनी खोखली विकास की पोटली / कि हम सुदामा नहीं और उससे बढ़कर ये कि तुम कृष्ण भी नहीं ....
रचना की इन सार्थक पंक्तियों को मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ.
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