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कविता :- आदमखोर
तुमने हमारे खेतों में खड़ी कर दीं चिमनियाँ 
बिछा दिए हाई - वे के सर्पिल संसार
बना दिए विकास के नाम पर मानवता के आंवे
और अब चाहते हो हम लायें एक और हरित क्रांति  ?
 
क्या तुम नहीं जानते कि हाई वे पर दनदनाते वाहन
अपने साथ उड़ा लाते हैं विकास की अंधी दौड़ की धूल
जहां नस्लें हल उठाना अपनी तौहीन समझती हैं
और दहलीज की संस्कृतियाँ भाग जाती हैं दबे पाँव
शहर की ओर उन्मुक्तता की तलाश में
 
शायद तुम ये भी नहीं जानते कि मजदूर तब उठाते हैं बंदूकें
जब उनका हक मारा जाता है और आवाज़ कर दी जाती है अनसुनी
तुम्हारे सपने उन्हें कुछ नहीं देते बल्कि छीन लेते हैं
खेतों की  बालियाँ माटी और स्वभाव का सोंधापन
जहां आदमी की बढती जाती है प्यास और वो हो जाता है आदमखोर
 
कितनी दुनिया बसाओगे तुम इस छोटी सी दुनिया  में
कहीं आयातित पित्ज़े लोगों के शौक
कहीं नून तेल और प्याज के भी लाले
कहीं पांचतारा स्कूल कालेज
और कहीं टाट को मोहताज हाथों में थाली लिए
बहती नाक पोंछते बच्चे
कहीं फार्मूला वन की रफ़्तार
कहीं पगडंडियों पर भी भ्रष्टाचार की मार
कब देखोगे तुम सौ आँखों और सौ चश्मों से परे की दुनिया और उसका सच
हाँ कि अब जाग रहें हैं हम धीरे ही सही
सो तुम समेटो अपनी खोखली विकास की पोटली
कि हम सुदामा नहीं और उससे बढ़कर ये कि तुम कृष्ण भी नहीं |
 
                         -  अभिनव अरुण  {30102011}

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 30, 2011 at 2:11pm

कवि को गढ़े-अनगढ़े मात्रिक छंदों और ग़ज़लों में पढ़ते रहने की आदत को ’आदमखोर’ की औचक प्रस्तुति से एक पाठक के तौर पर मुझे बड़ा जबर्दस्त झटका लगा है. लेकिन मनोहारी आश्चर्य यह है कि यह झटका सुखद है. साहित्याकाश में ऐसे झटके यदि लगते हैं तो रचना कर्म सबल, सार्थक और सुदृढ़ होता है.

रचना जबर्दस्त ढंग से कसी हुई किन्तु सीधी है. पूरी कविता में एक शब्द तक अनायास नहीं है. यह इस बात की बखूबी हामी है कि विकास और प्रगति के नाम पर होते अनगढ़ मज़ाक से कवि कितना विचलित है.  यह तथाकथित विकास हाशिये पर हाँफते समुदाय की उद्भ्रांत मनस और ऊहापोह से कितना असंपृक्त है.  ’यह विकास किनके लिये’ का प्रस्तुत प्रश्न बड़ी तीखी आवाज़ में सामने आता है और कानों में अपने होने का कर्कश ’श्रिल’ पैदा नहीं करता,  बल्कि कानों के नीचे करारे-करारे थप्पड़ रसीद करता दीखता है. 

किसी समाज के वज़ूद की आत्मा उसकी अनवरत संसृत होती संस्कृति ही हुआ करती है और इसके लगातार त्रस्त और विकल होते जाने को कवि के हृदय ने बिलबिला कर महसूस किया है.

तुम समेटो अपनी खोखली विकास की पोटली / कि हम सुदामा नहीं और उससे बढ़कर ये कि तुम कृष्ण भी नहीं ....

रचना की इन सार्थक पंक्तियों को मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ. 

 

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