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दस फागुनी दोहे -

दस फागुनी दोहे -

मन में संशय न रहे खुले खुले हों बंध ,

नेह छोह के पुष्प से निकले मादक गंध |

 

हुलस उलस इतरा रहे गोरी तेरे अंग ,

मेरे मन बजने लगे ढोल मजीरा चंग |

 

गोरी फागुन रच रहा ये कैसा षडयन्त्र ,

तू कानो में फूंकती आज मिलन के मन्त्र |

 

रंग लगाने के लिए तू बैठी थी ओट ,

मेरा मन सकुचा गया था अंतर में खोट |

 

होली होला होलिका सारे हैं उन्मुक्त ,

जिसका मुंह काला हुआ वही हो गया भुक्त |

 

खेत बगीचे देखिये फैले कितने रंग ,

फागुन होली खेलता आज प्रकृति के संग |

 

बैरी फागुन ले उड़ा बड़े बड़ों के होश ,

भांग ठंडई का नहीं इसमें सारा दोष |

 

रंग लगाने के लिए न मुहूर्त न काल ,

खुला निमंत्रण दे रहे साफ़ सुथरे गाल |

 

गलियाँ  मंदिर घाट सब होली में गुलज़ार ,

आज मसाने में सजा बाबा का दरबार |

 

कौन जोगीरा गा रहा सारा रारा राग ,

बाहर बाहर भींगना भीतर भीतर आग | 

 

                 || अभिनव अरुण ||

                      (29022012)

 

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Comment

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Comment by Abhinav Arun on March 10, 2012 at 3:32pm

आदरणीय श्री आशीष जी , आप वह कमेन्ट पुनः डाल दें मेरा भी आग्रह है | मैं जब बाज़ार में निकला हूँ तो अपनी आम - परख कमी - बेसी सब कुछ खुद और सभी के द्वारा पढ़े सुने कहे जाने से मुझे कोई ऐतराज़ नहीं | इससे कोई छोटा बड़ा नहीं होता | रचनाकार अपनी रचना से बड़ा होता है अपनी उम्र या वरिष्ठता  से नहीं | इधर ओ बी ओ में मेरे कारन  से कुछ तल्खी बढ़ी है मैं इसे स्वस्थ रूप से लेता हूँ , सभी लें | अन्यथा प्रबंधन मुझे इशारा कर दे टा टा बाय बाय हो तो थोड़ी तकलीफ होगी पर बहुत कुछ सहा है कुछ और सही |


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 10, 2012 at 3:04pm

मैं प्रस्तुत प्रविष्टि ’दस फागुनी दोहे’ के परिप्रेक्ष्य मे दो बातें होता हुआ देख पा रहा हूँ. जिसके लिये अभिन्न अनुज आशीष जी का हार्दिक रूप से शुक्रगुज़ार हूँ. ओबीओ मात्र रचना और रचनाकार ही नहीं, बल्कि पाठकधर्मिता तक के साहित्यिक व्यवहार में ठोसपन इंजेक्ट करना चाहता है.

अनुज आशीषजी, जो अभी तक अक्सर एक या दो वैशेषणिक शब्दों के माध्यम से रचनाओं पर प्रतिक्रिया और टिप्पणियाँ दिया करते थे, छंदो की नियमावलियों का हवाला देते हुए सुदृढ़ ढंग से पूरी बात कह रहे हैं.  यह कम बड़ी बात नहीं है. मैं इसे ओबीओ के मंच पर हुई बहुत बड़ी एक सकारात्मक घटना मानता हूँ. आशीषभाई के कहे पर या तो हाँ कहा जाना चाहिये या ना कहा जाना चाहिये. किसी भी तरह का रैशनलाइजेशन अपने रचनाकर्म की कमियों को छुपाना है,  या  एक ऊर्जस्वी और नवोदित की आवाज़ को दबाना है.  या, इस नवोदित के वज़ूद को हतोत्साहित करना है. इसका प्रतिफल यह होता है कि नवोदित रचनाकार या नया पाठक ’वाह-वाही’ या चारण को अभीष्ठ समझ बैठता है. अथवा, सही बात कहने से बचने लगता है. यह उस ’बड़े’ या ’स्थापित’ रचनाकार ही नहीं उस मंच के लिये भी पराभव का प्रारम्भ है.

इसी ओबीओ में एक डिस्कशन प्रारम्भ हुआ है, जहाँ अन्य मंचों पर या अन्यान्य साहित्यिक पटलों पर नवोदितों के साथ भेद-भाव होने की बात कही गयी है और उसके प्रतिकार स्वरूप आवाज़ उठाने की बात कही गयी है.  ताकि नवोदितों को सकारात्मक प्रश्रय मिले. और उनकी संलग्नता और आवाज़ को कोई तथाकथित ’बड़ा’ या ’स्थापित’ साहित्यकार जबर्दस्ती दबा न सके. हतोत्साहित न कर सके. 

मैं लिंक को शेयर कर रहा हूँ -

http://openbooksonline.com/forum/topics/5170231:Topic:45582?comment...

 

भाई आशीषजी आप एकदम से सही हैं और आपका अध्ययन अभिभूतकारी है.  आप छंदों पर इसी  तरह कार्य करते रहें. लेकिन आशीषजी, आपसे नाराज़ग़ी भी हुई है.  आपने अपने उस पोस्ट को डिलीट क्यों किया जिसके एवज़ में भाई अभिनवजी ने  DO CHAR SABAK JABSE UNHE YAAD HO GAYE, WO DEKHTE HI DEKHTE USTAAD HO GAYE जैसी सतही प्रतिक्रिया दी है ? आशीषजी, यह तो आपके विद्यार्थीपन के सकारात्मक पहलू को खुला अनुमोदन है. 

साग्रह कह रहा हूँ, आईंदा आप इस तरह कुछ करने से बचें. आपका दोहों पर नियमावलियों के सापेक्ष कुछ भी सादरपूर्वक कहना आपकी वैचारिक स्पष्टता का परिचायक है.  ओबीओ ’सीखने-सिखाने’ का मंच है नकि मठाधीशी को अनुमोदन करने का गढ़.  हाँ, इंगित करने के क्रम में वाचालता, शाब्दिक उच्छृंलता या वैचारिक अनुशासनहीनता नहीं होनी चाहिये.

शुभेच्छा और सधन्यवाद

Comment by Abhinav Arun on March 10, 2012 at 1:17pm

हार्दिक आभार आदरणीय श्री आशीष जी !! और होली के हार्दिक शुभकामनाएं भी स्वीकारें !!

Comment by आशीष यादव on March 8, 2012 at 8:56pm
होली पर बहुत अच्छे दोहे।
हैप्पी होली
Comment by Abhinav Arun on March 3, 2012 at 12:34pm
आदरणीय श्री राकेश जी हार्दिक आभार आपको दोहे पसंद आये , और हाँ शुभ रंगोत्सव !!
Comment by Abhinav Arun on March 3, 2012 at 12:33pm
 आदरणीय श्री ओ बी ओ  संपादक महोदय आपका आशीर्वाद पाकर लेखनी धन्य हुई !! हार्दिक आभार !!
Comment by राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी' on March 3, 2012 at 11:00am

sare ke sare dohe bahut uttam hai, holi ki aur rachana ki dono ke liye hardik badhai.


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on March 3, 2012 at 10:32am
दोहे पढ़ कर फागुनी, तन मन झूमे जात          

जै जै जै ह़ो आपकी, जै जै जै हो तात !

Comment by Abhinav Arun on March 2, 2012 at 7:52pm
शुभ्रांशु जी हार्दिक आभार और रंगोत्सव की अनंत  बधाइयाँ !!
Comment by Shubhranshu Pandey on March 2, 2012 at 11:11am

रंग लगाने के लिए न मुहूर्त न काल ,

खुला निमंत्रण दे रहे साफ़ सुथरे गाल.......बिल्कुल सही है भाई.......कपडे और दीवारें भी निमंत्रण देती है.....

बस, होली है.....

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