फाग बड़ा चंचल करे, काया रचती रूप !
भाव-भावना-भेद को, फागुन-फागुन धूप !!
फगुनाई ऐसी चढ़ी, टेसू धारें आग
दोहे तक तउआ रहे, छेड़ें मन में फाग ॥
भइ, फागुन में उम्र भी करती जोरमजोर
फाग विदेही कर रहा, बासंती बरजोर !!
जबसे सींचित हो गये, बूँद-बूँद ले नेह ।
मन में फागुन झूमता, चैताती है देह !!
बोल हुए मनुहार से, जड़वत मन तस्वीर
मुग्धा होली खेलती, गुद-गुद हुआ अबीर ॥
धूप खिली छत खेलती, अल्हड़ खोले केश ।
इस फागुन फिर रह गये, बचपन के अवशेष ॥
करता नंग अनंग है, खुल्लमखुल्ले भाव
होश रहे तो नागरी, जोशीले को ताव .. !
हम तो भाई देस के, जिसके माने गाँव ।
गलियाँ घर-घर जी रहीं - फगुआ, कुश्ती-दाँव ॥
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सौरभ
Comment
mananiya saurabh ji aur yogi ji, sama bandh diya aap logo ne. sadar badhai
नाच उठा आकाश भी, ऐसा उड़ा अबीर।
ताज नशे में झूमता,यमुना जी के तीर।१।
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बरसाने की लाठियाँ, खाते हैं बड़भाग।
जो पावै सौगात ये, तन मन बागो बाग़।२।
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तन मन पे यूँ छा गई, होली की तासीर।
राँझे को रँगने चली, ले पिचकारी हीर।३।
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रंग लगावें सालियाँ, बापू भयो जवान।
हुड़ हुड़ हुड़ करता फिरे, बन दबंग सलमान।४।
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होली के हुडदंग में, योगी राज उवाच।
पटिआले की भांग ने,फेल करी इस्काच।५।
प्रदीपजी, आपने ’रचना’ को देखा, यह अभिभूतकरी है.
दोहा छंद में ये कुछ भावोद्गार हैं.
सादर.
फाग बड़ा चंचल करे, काया रचती रूप !
भाव-भावना-भेद को, फागुन-फागुन धूप !!
sundar prastuti, badhai
भाई अविनाशजी तथा भाई संदीप ’वाहिद’, आपको प्रयास रुचा यह मेरे लिये परम संतोष की बात है.
सभी को होली की हार्दिक शुभकामनाएँ.
सादर नमस्कार,
आपके फागुनी दोहों ने हृदय प्रफुल्लित कर दिया है।
धूप खिली छत खेलती, अल्हड़ खोले केश ।
इस फागुन फिर रह गये, बचपन के अवशेष ॥
बहुत ही सुंदर रचना,
जबसे सींचित हो गये, बूँद-बूँद ले नेह ।
मन में फागुन झूमता, चैताती है देह !!
बोल हुए मनुहार से, जड़वत मन तस्वीर
मुग्धा होली खेलती, गुद-गुद हुआ अबीर ॥..Saurabh ji...शानदार दोहे हार्दिक बधाई !!
भाई आशुतोषजी, आप सदा तरोताज़ा रहें ताकि इस मंच को भी ताज़ग़ी मिलती रहे.
आपको दोहे पसंद आये, इस हेतु आभार व्यक्त करता हूँ.
नीरज जी, आप अतिरेक में ही सही रचना पर नज़र डाले देते हैं यह मेरे लिये भी सौभाग्य है.
हार्दिक धन्यवाद.
भाई अभिनवजी, प्रत्येक दोहे पर आपकी टिप्पणी अभिभूत कर गयी.
हृदय से आभार.
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