मैं पहाड़ी नदी हूँ…
उसी स्वामी के अस्तित्व से उद्भूत होती
उसी का सीना चीरती, काटती
अपने गंतव्य का पथ बनाती
विच्छिन्न करती प्रस्तरों-शिलाओं को
विखंडनों को भी चाक करती
सब साथ बहा ले जाती
अपने पीछे पहाड़ पर मैं
छोड़ जाती केवल चिन्हों की थाती
चिन्ह जो प्रतीक हैं मेरे पहाड़ से
पराभव और गमन के
हाँ…!! जिससे उपजी मैं उसे ही
छोड़ जाती हूँ…
पर मेरा कोई दोष नहीं
यही मेरी नियति है
जिसे ख़ुद पहाड़ ने लिखा
मेरा प्रारब्ध निश्चित किया
क्यूँ हैं उस पर ढलान बने
अपने उद्गम से यही पाती हूँ मैं
वही मुझे गति है देता चलायमान करता
मेरा तो काम ही है प्रवाहित होना
बस बहते जाना
प्रकृति के यौवन को चिरकाल तक
प्रतिदिन सजाना
जिस क्षण मैं रुकी, मेरा जीवन
मेरा अस्तित्व विलीन हो जायेगा
फिर भी उत्कंठित होता है हृदय
इस अलभ्य अभिलाषा से
क्या मैं कोई सरोवर नहीं हो सकती थी
जो सदा यहीं रहती अपने गांव में
अपनों और अपने सपनों के बीच
शांति और सुरम्यता में
किन्तु यह स्वप्निल तन्द्रा
भंग हो जाती है, लौट आती है
वास्तविकता के धरातल पर
कि तब मेरी यह चंचलता और
स्वच्छंदता न होती
मेरा हंसना-खिलखिलाना न होता
बिना मेरे इस मुक्त गुंजित कलकल निनाद
जो प्रत्याभास देता है मधुरिम संगीत का
मधु सा घुलता हुआ कर्णप्रिय नाद
Comment
भूरि-भूरि प्रशंसा के लिए कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ आदरणीय अभिनव जी|
अति सुन्दर श्री वाहिद जी !! भाषा - प्रवाह - कथ्य शिल्प हर लिहाज se एक उत्कृष्ट प्रस्तुति !! हार्दिक बधाई !!
आदरणीय हरीश जी,
सराहना भरे शब्दों के लिए कृतज्ञ हूँ|
प्रणाम आनंद जी,
सुन्दर शब्दों में प्रशंसा के लिए आभारी हूँ आपका|
आदरणीय राज जी,
प्रोत्साहन और प्रशंसा के लिए आपका ऋणी हूँ| 'निराला' जी के पाँव की धूल भी बन सका तो बहुत गर्व होगा|
संदीप जी प्रणाम,
बहुत ही सुंदर कविता के लिए हार्दिक बधाई.
बहुत गहरी रचना "निराला जी" की विधा पर चलती हुई,,,,,,बधाई,,,
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