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ऐ शाबाश, ज़बांज,
मुहब्बत मे भी चढ़ जाएँगे हम सूली पर,
जो निकले हैं आज वो दिल की वसूली पर :)
बहुत सही लिखा है आपने. बधाइयाँ.
दादा माइ मिलैं जनमतै,गोरिया मिलै जनमतै नाय।
जब्बै भइय्या मौका पाओ,चउवा छक्का मारौ जाय॥....आदरणीय विध्येश्वरी जी मैं श्रृंगार का कतई विरोधी नहीं हूँ और साहित्य में नित नूतन प्रयोग को साहित्य की पुष्टि तथा भाषा के प्रचार की दृष्टि से अपरिहार्य मानता हूँ|रस कभी भी किसी विधा के मोहताज नहीं होते किन्तु बड़े छंदों में लिखी गयी वीर रस की कवितायें अपना प्रभाव कम छोडती हैं|OBO पर तो मेरा नया जन्म है और इस मंच के लिए मैं एक शिशु के सामान हूँ|ऊपर लिखी पंक्तियाँ द्विअर्थी सी प्रतीत होती हैं|क्षमा कीजियेगा आपका काव्य शिल्प की दृष्टि से निःसंदेह उत्तम है और इस प्रेम में भी अकुलाहट की स्पष्ट अनुभूति देती है|यह श्रृगार ही है फिर भी यह अपनी प्रवृत्ति से मुक्त नहीं हो पाया है और प्रत्येक पंक्ति में वीर रस का स्थायी भाव उत्साह झलका ही है|
आदरणीय श्री विन्ध्येश्वरी जी आल्हा जैसी आज के दौर में कम प्रचलित विधा पर आपने कलम चलाई बहुत बहुत बधाई आपको रचना में प्रवाह और विषय की गहराई काबिले तारीफ है !!
विन्ध्येश्वरी भाई सादर वन्देमातरम...जहाँ तक मैं जानता हूँ...आल्हा वीर रस में लिखा जाय और जागृति उत्पन्न करने के लिए लिखा जाय तो ही उत्तम है..आल्हा हमारी सांस्कृतिक अस्मिता की पहचान है..मैं मीरजापुर की उस भूमि से जुड़ा हुआ हूँ जहाँ आल्हा को बहुत सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है|मैं प्रेम का विरोधी नहीं और आपके आल्हा के क्षेत्र में किये गए कार्यों की प्रशंसा भी करता हूँ ..किन्तु आपसे एक निवेदन है की संक्रांति की इस वेला में आल्हा की पारम्परिक भावना पर भी काम करे|साभार
अनचोके में गरई धराइल, ओसहीं जइसे, कबो त छूँछे कबो त वाह-वाह !!
वाह गणेश भाई.
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