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विन्ध्येश्वरी जी आपकी आल्हा काफी समझ में आ गई मैंने भी वीर रस में इस तरह की आल्हा अपने बुजुर्गों से सुनी थी हर पंक्ति में अंत में शब्द आय पर ख़त्म होता है यह भी एक रोचक छंद विद्या है |बहुत अच्छा लिखा है |
आल्हा - अमूमन वीर रस की गाथाओं और कथ्यों के लिये सुप्रसिद्ध यह छंद आल्हा एक तरह का मात्रिक छंद है. प्रत्येक चरण में सोलह मात्राएँ होती हैं, किन्तु सम चरण का अंत गुरु-लघु से समाप्त होता है. कथ्य में अतिशयोक्ति की अतिशयता छंद का विशेष गुण है. अक्सर राई को पहाड़ करके तथ्यों को कहने की परिपाटी है.
इस हिसाब से विन्ध्येश्वरी जी ने प्यार को मरक़ज़ में रख कर आल्हा के ताव को कुछ नरमाई देने की कोशिश की है .. ... :-)))
कहीं-कहीं कोई शब्द अपने देसज रूप में होने के कारण भाषा से इतर क्षेत्र के पाठकों के लिये कठिनाई पैदा कर सकते हैं. यथा,
मानों वै मानो कै जोनी,आपन विरथा दिहिन गवाय॥
इस पंक्ति में ’मानो’ ’मानव’ शब्द का अप्रभंश है.
थोड़ा और प्रयास पूरे छंद को निर्दोष बना देता. लेकिन प्रयास बहुत ही सुन्दर हुआ है और अनुकरणीय है.
बहुत-बहुत बधाई विन्ध्येश्वरी जी.. !!
हमें चौके-छक्के की अनुमति है ? !!.. .. हा हा हा हा... .
अल्पज्ञानी होने के कारण ठीक से समझ नहीं पाया मगर जितना समझा वो बहुत ही अच्छा लगा त्रिपाठी जी| साभार,
आल्हा लिखने की तमन्ना मेरी थी. तकनीकी नहीं मालूम है. आपने लिखा . सीखने को मिलेगा. बहुत सुन्दर भाव पूर्ण अभिव्यक्ति. बधाई.
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