ब्रज मां होली खेले मुरारी अवध मां रघुराई
मेरा संदेसा पिया को दे जो जाने पीर पराई
कोयल को अमराई मिली कीटों को उपवन
मैं अभागिन ऐसी रही आया न मेरा साजन
लाल पहनू , नीली पहनू, हरी हो या वसंती
पुष्पों की माला भी तन मन शूल ऐसे चुभती
सूनी गलियां सूना उपवन सूना सूना संसार है
मैं बिरहिन यहाँ तड़फूं कैसा तेरा ये प्यार है
प्रियतम भेजी कितनी पाती तेरी याद सताती है
मैं तो दूजे घर की बेटी माटी की याद न आती है
अब तो आजा बिखर चुकी हूँ लगता सब बेकार है
अब न आया तो फिर न मिलूंगी जीवन धिक्कार है
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा
Comment
snehi संदीप ji. सादर abhivadan
snehi rakesh ji. शुभाशीष.
snehi mahima ji. शुभाशीष.
सूनी गलियां सूना उपवन सूना सूना संसार है
मैं बिरहिन यहाँ तडपू कैसा तेरा ये प्यार है
बहुत खूब आदरणीय प्रदीप जी, अच्छी रचना , नायिका की बिरह बेदना को आपने स्वर दे दिया है, बधाई स्वीकार करें ।
आदरणीय श्री प्रदीप जी बहुत सरल सहज अंदाज़ में मन की कहती रचना | सही है एक बिरहन से ही पूछिये इन मौसमों त्योहारों में क्या गुज़रती है -
सूनी गलियां सूना उपवन सूना सूना संसार है
मैं बिरहिन यहाँ तड़फूं कैसा तेरा ये प्यार है
इस "तड़फूं"का जवाब नहीं !! वाह !!
होली और विरह को लेकर बहुत सी रचनाएँ लिखी जा चुकी हैं किन्तु आपकी इस रचना में एक नयापन झलक रहा है| राकेश जी की बातों से मैं भी सहमत हूँ| बधाई स्वीकार करें आदरणीय प्रदीप जी|
आदरणीय प्रदीप जी, सादर नमस्कार. बहुत खूब, आपने कई लोगो की विरह वेदना को छदो मे पिरो दिया है, बधाई बधाई.
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