हमको यहाँ लूटा गया,
वादा तेरा झूठा गया.
वो कब मनाने आये थे?
हम से नहीं, रूठा गया.
चोटें तो दिल पर ही लगी,
खूं आँख से चूता गया.
जो चुप रहे, ढक आँख ले,
राजा ऐसा, ढूंढा गया.
पैसों से या फिर डंडों से,
सर जो उठा, सूता गया.
दारु बँटा करती यहाँ!
यह वोट भी, ठूँठा गया. (ठूँठ = NULL/VOID)
संन्यास ले, बैठा कहीं,
घर जाने का, बूता गया.
नव वर्ष 'मंगल' कैसे हो?
दिन आज भी रूखा गया.
खोजा "खुदा" वो ता-उमर!
आगे से इक भूखा गया.
पीछे रहा है 'बस्तिवी'!
सर पर नहीं कूदा गया.
Comment
आदरणीय प्रदीप जी, श्री राजीव जी, श्री सौरभ जी एवं श्री संदीप भाई साहब, आप लोग ने मेरे लिए जो कमेन्ट रख छोड़े हैं, उनका बड़ा महत्त्व है रचना के लिए. आप सभी भद्र जनों को मेरा हार्दिक आभार.
माननीय सौरभ जी, सादर! मैंने बह्र-ए-रजज मुरब्बा (२२१२/२२१२) में कहने की कोशिश की है. रदीफ़ 'गया' लिया है और काफिया 'आ'. यथा शक्ति सारी मात्राएँ भी गिनी है, कहीं कहीं जरून 'अं' की बिंदी को २ कभी १ मात्रा में गिना है, क्या ये सही है? आपसे सविनय निवेदन है की अन्य गलतियों को भी चिन्हित करें आगे का मार्ग दर्शन करें. (मेरे मामले में आप निश्चिन्त रहें, हमें गलतियाँ दोहरेने से ज्यादा अच्छा गलतियाँ सुधiरने में लगता है :))
हमको यहाँ लूटा गया,
वादा सभी झूठा गया.
वो कब मनाने आये थे?
हम ही से ना, रूठा गया.
श्री राकेश सर जी क्या खूब कहन है ,मेरी बधाई स्वीकार करे
नव वर्ष 'मंगल' कैसे हो?
दिन आज भी रूखा गया.
खोजा "खुदा" ता-उमर!
पीछे रहा है 'बस्तिवी'!
कंधे पे ना कूदा गया
कह दिया -कह दिया , सब कुछ कह दिया. स्नेही राकेश जी सादर बधाई
भाई राकेशजी, आप अपनी ग़ज़ल की बह्र का वज़्न दें. भाव और कहन तो माशाअल्लाह अच्छे होने ही हैं, आपके अंदर का कवि सहृदय ह नहीं जागरुक भी जो है. अब उस कवि की उन्नत भावनाओं को अनुकूल विधा मिलनी ही चाहिये, जिसके लिये आपको प्रयासरत रहना स्वयं की भावनाओं की इज़्ज़त करना होगा.
हार्दिक शुभेच्छाएँ.
बहुत सुन्दर कविता,राकेश जी.क्या खूब पंक्तियाँ हैं....
नव वर्ष 'मंगल' कैसे हो? दिन आज भी रूखा गया. खोजा "खुदा" ता-उमर!
प्रिय राकेश भाई,
हर एक शे'र एक नयी बात कह रहा है| सबके मज़मून अलग़ हैं| मगर मक़्सद एक ही है| बहुत ख़ूब| आपका क़ाइल तो पहले ही से हूँ| बहुत ही बढ़िया|
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