(चतुष्क-अष्टक पर आघृत)
पदपदांकुलक छंद (१६ मात्रा अंत में गुरू)
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सपनों पर जीत उसी की है,
जिसके मन में अभिलाषा है.
वह क्या जीतेंगे समर कभी,
जिनके मन घोर निराशा है ..
चींटी का सहज कर्म देखो,
चढ़ती है फिर गिर जाती है.
अपनें प्रयास के बल पर ही,
मंजिल वह अपनी पाती है..
स्वप्न की उन्नत परिभाषा,
क्या तुमने कभी विचारी है.
जिनके सपनें न पूर्ण हुए,
दिखती उनकी लाचारी है..
है स्वप्न सत्य या वृथा है ये?
कहने को सिर्फ कथा है ये?
उस जन को ही पहचान मिली,
जिसने भव सिन्धु मथा है ये..
देखे ना होते स्वप्न अगर,
क्या व्योम चन्द्र पर जा पाते.
धरती अम्बर की दूरी का ,
क्या कोई पता लगा पाते ..
वह स्वप्न शून्य सा लगता जो,
मंजिल से हमें मिला न सके.
वह जीवन भी जीवन क्या है,
सपनों का फूल खिला न सके..
शैलेन्द्र कुमार सिंह 'मृदु'
Comment
चींटी का सहज कर्म देखो,
चढ़ती है फिर गिर जाती है.
अपनें प्रयास के बल पर ही,
मंजिल वह अपनी पाती है..
नर हो ना निराश करो मनको .. की याद आ गयी | अच्छी लगी , कैसे तारीफ़ करूँ , मुझे ठीक से ये विधा नहीं आती | क्षमा करेंगें |
आदरणीय जवाहर सर सादर नमन , सराहना हेतु कोटि कोटि धन्यवाद
आदरणीय प्रदीप सर आप लोंगों से सीख कर लिखने का प्रयास करता हूँ ,उत्साहवर्धन हेतु ह्रदय से आभार
वह स्वप्न शून्य सा लगता जो,
मंजिल से हमें मिला न सके.
वह जीवन भी जीवन क्या है,
सपनों का फूल खिला न सके
आदरणीय मृदु जी, सादर अभिवादन! बहुत ही सुन्दर और प्रेरणादायी लगी आपकी रचना बधाई!
rachna feature hone par badhai.
आदरणीया महिमा जी कृति को सराहना प्रदान करने हेतु बहुत बहुत आभार
आशीष जी सराहना के लिए ह्रदय से आभार
आदरणीय संजय सर सादर नमन ,उत्साहवर्धन के लिए कोटि कोटि धन्यवाद
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