मुक्तिका: संजीव 'सलिल'
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लफ्ज़ लब से फूल की पँखुरी सदृश झरते रहे.
खलिश हरकर ज़िंदगी को बेहतर करते रहे..
चुना था उनको कि कुछ सेवा करेंगे देश की-
हाय री किस्मत! वतन को गधे मिल चरते रहे..
आँख से आँखें मिलाकर, आँख में कब आ बसे?
मूँद लीं आँखें सनम सपने हसीं भरते रहे..
ज़िंदगी जिससे मिली करते उसीकी बंदगी.
है हकीकत उसी पर हर श्वास हम मरते रहे..
कामयाबी जब मिली सेहरा सजा निज शीश पर-
दोष नाकामी का औरों पर 'सलिल' धरते रहे..
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Acharya Sanjiv verma 'Salil'
Comment
bhaee kushwaha jee!
gadhon ko charane se rokane ke liye anna ke sath juda jae.
सादर बधाई आचार्यवर. मुक्तिका की सुन्दर प्रस्तुति.
चुना था उनको कि कुछ सेवा करेंगे देश की-
हाय री किस्मत! वतन को गधे मिल चरते रहे.. .. कहन से अद्भुत इस बंद को लागू बह्र पर ही रहने दिया होता न.
आदरणीय सलिल जी नमस्कार ,
कामयाबी जब मिली सेहरा सजा निज शीश पर-
दोष नाकामी का औरों पर 'सलिल' धरते रहे..
वाह वाह कटाक्ष मारती हुए मुक्तक सलिल जी कोई जबाब नहीं
चुना था उनको कि कुछ सेवा करेंगे देश की-
हाय री किस्मत! वतन को गधे मिल चरते रहे..
aadarniya salil ji, saadar abhivadan.
bahut sundar bhav evam prastuti. ab kya kiya jaye.
badhai.
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