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मोहब्बत के फ़न कभी बिकते नहीं बाज़ारों में  इश्क के फूल अब  खिलते नहीं गुलनारों में बिखर गई है किसी राह में वफ़ा की खुशबु  वो गुंचे पहले से मिलते  नहीं  गुलबहारों में    एहसास जो रूहे जमीं से निकलते…

मोहब्बत के फ़न कभी बिकते नहीं बाज़ारों में 

इश्क के फूल अब  खिलते नहीं गुलनारों में


बिखर गई है किसी राह में वफ़ा की खुशबु 

वो गुंचे पहले से मिलते  नहीं  गुलबहारों में

 

 एहसास जो रूहे जमीं से निकलते थे कभी 

फ़कत  याद हैं अब ढलते नहीं अशआरों में 


वफ़ा के दरिया में अब  डूब के क्या करियेगा

वो दर्दे शरारे कभी दिखते नहीं तलबगारों में 


 कैसे बनाये कोई अपनी मोहब्बतों के महल

ताज से बिम्ब नहीं टिकते सभी  दीवारों में 


जिन पर नाज था  हिन्द की सल्तनत को 

वो जवाँ चेहरे अब दिखते नहीं अखबारों में


लगता  है  अब उनमे भी  बढ़ गई   दूरियां 

 परिंदे वो पहले  से  उड़ते नहीं  कतारों में  

              *****

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 28, 2012 at 8:06am

प्रदीप कुमार कुशवाह जी तारीफ के लिए हार्दिक आभार |

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 24, 2012 at 12:10pm

लगता  है  अब उनमे भी  बढ़ गई   दूरियां 

 परिंदे वो पहले  से  उड़ते नहीं  कतारों में  

आदरणीया राजेश कुमारी जी, सादर अभिवादन. 

बहुत सही फ़रमाया है आपने. कितना बदलाव आ चुका है स्वभाव में. बधाई.



सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 23, 2012 at 3:18pm

shukria veenas ji aabhar. 

Comment by वीनस केसरी on April 23, 2012 at 3:15pm

सुन्दर भावाभिव्यक्ति


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 22, 2012 at 10:28pm

haardik aabhar shalendra ji .

Comment by CA (Dr.)SHAILENDRA SINGH 'MRIDU' on April 22, 2012 at 9:47pm

किस किस शेर की तारीफ करूँ मैं बहुत ही उम्दा एवं भावपूर्ण गजल, बधाई स्वीकार करें


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 22, 2012 at 5:32pm

हाँ महिमा जी आपका कहना दुरस्त है कहते हैं न खरबूजे को देख कर खरबूजा रंग बदलता है ....बहरहाल आपकी प्रतिक्रिया सर आँखों पर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 22, 2012 at 5:29pm

संदीप द्विवेदी जी बहुत- बहुत शुक्रिया ग़ज़ल की सराहना करने के लिए आपकी प्रतिक्रिया से मेरी लेखनी को बल मिला |

Comment by MAHIMA SHREE on April 22, 2012 at 5:13pm

लगता  है  अब उनमे भी  बढ़ गई   दूरियां 

 परिंदे वो पहले  से  उड़ते नहीं  कतारों में  ....

आदरणीया राजेश दी , नमस्कार

वाह वाह क्या खूब कही ...इंसानों के बीच रहेंगे तो ये तो होना ही था,...

बधाई आपको

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on April 22, 2012 at 3:02pm

आदरणीया बहुत ही उम्दा ग़ज़ल पेश की आपने| बहुत ही ख़ूबसूरत अलफ़ाज़ और वैसी ही कहन भी| पढ़ कर अत्यधिक आनंदित हुआ| ये तीन अशआर विशेष रूप से पसंद आये| :))

एहसास जो रूहे जमीं से निकलते थे कभी 

फ़कत  याद हैं अब ढलते नहीं अशआरों में

जिन पर नाज था  हिन्द की सल्तनत को 

लगता  है  अब उनमे भी  बढ़ गई   दूरियां 

 परिंदे वो पहले  से  उड़ते नहीं  कतारों में

वो जवाँ चेहरे अब दिखते नहीं अखबारों में


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