कुछ दिनों पहले घाट पर अपने मित्र मनोज मयंक जी के साथ बैठा था| रात हो चली थी और घाटों के किनारे लगी हाई मॉइस्ट बत्तियाँ गंगाजल में सुन्दर प्रतिबिम्ब बना रही थीं और मेरे मन में कुछ उपजने लगा जो आपके साथ साझा कर रहा हूँ| इस ग़ज़ल को वास्तव में ग़ज़ल का रूप देने में 'वीनस केसरी' जी का अप्रतिम योगदान है और इसलिए उनका उल्लेख करना आवश्यक है| ग़ज़ल में जहाँ-जहाँ 'इटैलिक्स' में शब्द हैं वे वीनस जी द्वारा इस्लाह किये गए हैं| ग़ज़ल की बह्र है २२१/१२२१/१२२१/२१२ तथा काफ़िया एवं रदीफ़ हैं 'आब' व 'है' |
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किसको है ख़बर इसकी ये सच है या ख़्वाब है;
हर रात बनारस की बड़ी लाजवाब है;
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कोतवाल है भैरव तो कलक्टर हैं भोले बा,
गंगा में नहा लो यहाँ मिलता सवाब है;
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मुल्क अपना अगर कोई गुलिस्तान मान लें,
ये शहर बनारस कोई खिलता गुलाब है;
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कहने को बहुत कुछ था मगर कुछ ही कह सका,
लेकिन जो कहा उसका न मिलता जवाब है;
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अल्फ़ाज़ तूने मुंह से न गिरने दिए कभी,
लेकिन ये नज़र तेरी नुमाया किताब है;
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मैंने न कहा कुछ न कभी की शिक़ायतें,
किस बात पे फिर आपको शिकवा जनाब है;
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इख़्लाक़ भी है तुझमें तू मुख़लिस भी है मगर,
हो जाए अगर हद से ज़ियादा अज़ाब है;
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पाया है यहीं सब तू यहीं छोड़ जाएगा,
क्या जोड़-घटाना बेगरज़ जब हिसाब है;
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है कौन यहाँ किसकी तरफ़ किसको है पता,
'वाहिद' तू संभल जा के ज़माना ख़राब है;
Comment
और ये कहना कतई गलत न होगा की आप दोनों की जुगलबंदी काम कर गई.
वह! बहुत खूब!! वाहिद भाई सादर बधाई. एकदम दिल को छू गया:
पाया है यहीं सब तू यहीं छोड़ जाएगा,
क्या जोड़-घटाना बेगरज़ जब हिसाब है.
श्री संदीप जी !! वाह बहुत खूब मन मोह गया आपका हर शेर ..बोलता है बनारस की शान की और उसके pahchaan की gaatha इस ग़ज़ल में मजबूती से उभरी है वाह क्या कहने !!
संदीप जी मेहनत रंग ला रही है, सभी शेर बढ़िया निकाले है, आपने मुझे उन दिनों की याद दिला दिया जब मैं सुबह और शाम केदार घाट पर नहाया करता था, जाड़े के मौसम में सुबह सूर्य की किरणे सीधे शरीर पर पड़ती हैं , यह तो बनारस में ही संभव है, बहुत बहुत बधाई इस खुबसूरत ग़ज़ल पर |
वाहिद जी को नमस्कार है.
सुन्दर गज़ल के लिए धन्यवाद है.
सही है, संदीप वाहिद भाई, इस निराले शहर से अपना अज़ीब सा नाता है. ज़रूर है कि इससे खीझते हैं, इससे रूठते हैं तो इसीको मनाते हैं. अलमस्त घाटों की बलौस सीढ़ियों पर अपनी बेफ़िक़्र आवारग़ी में चहलकदमी करते हुए इससे बेख़ौफ़ बतियाते हैं. इसकी दरियादिली पर मुग्ध हो कर इस शहर को दिल की गहराइयों से दुलार करते हैं. .. . क्या कोई अपने शहर को कहीं ऐसे भी ’दुलार’ करता है !
काश.. इन घाटों के बाहर ये शहर अपना वही ’बनारस’ रहता. .. ’यर्रर्रजा’.. ’का गुरु’ करता हुआ.
जिस परंपरा का निर्वहन होना इस मंच का आग्रह रहा है उसकी रेख खींचने के प्रति आपका सकारात्मक और सार्थक प्रयास मुग्ध कर गया. सादर आभार व्यक्त करता हूँ, संदीप वाहिदभाईजी.
मुल्क अपना अगर कोई गुलिस्तान मान लें,
ये शहर बनारस कोई खिलता गुलाब है;
जी संदीप सर बिल्कुल सही कहा आपने बनारस है ही ऐसा , बधाई स्वीकार करें
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