लघु कथा :- गिद्ध
"चल कल्लुआ जल्दी से दारु पिला, आज बहुत टेंसन में हूँ |"
"अरे, टेंसन और आप? आखिर ऐसी क्या बात हो गई बिल्लू दादा ?
"यार, कल शाम जिस बूढ़े को हमने लूटा था न, उसने थाने में रपट दर्ज करा दी है |"
"तो दादा इसमें कौन सी टेंसन की बात है ?"
"टेंसन ये है कि हम ने तो कुल २१२ रुपये और एक पुरानी सी घड़ी ही लूटी थी, लेकिन उस बुढऊ ने दस हजार नगद, एक घड़ी और सोने की अंगूठी की रपट लिखवा दी है |"
"रपट लिखवा दी तो कौन सा आसमान टूट पड़ा ?"
"आसमान ये टूट पड़ा है कल्लुआ कि अब ऊ ससुरा दरोगा, लूट में से आधा हिस्सा मांग रहा है |"
Comment
अपने नाम से ही परिलक्षित होती लघु कथा में वाकई यथार्थ सत्य दिखाई पड़ा , आपकी सन्देश परक लघुकथा पर हार्दिक बधाई स्वीकार करें सर
बहुत बढ़िया !! कितनी सादगी से लघुकथा का हक़ अदा कर दिया और बात भी कह दी !! बधाई श्री बागी जी !!
आदरणीय बागी जी, सादर.
अपने नाम को सार्थक करती हुई बहुत ही सुंदर लघुकथा कही है बागी जी. कहानी में २ गिद्ध तो वो चोर हैं, तीसरा गिद्ध है हिस्सखोर दरोगा, और मज़े की बात तो ये है कि लुटने वाले बूढे में भी कहीं न कहीं गिद्धवृत्ति दिखाई दे रही है. दरअसल, अपने आसपास से छोटे छोटे लम्हे चुराकर थोड़े से शब्दों में बात कह देने का नाम ही लघुकथा है. आपकी लघुकथा भी बिल्कुल वैसे ही है. केवल वार्तालाप के माद्यम से आपने अपनी बात को बड़े कसे हुए अंदाज़ में कहा है, जिसकी जितनी प्रशंसा की जाए कम है. मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें भाई बागी जी.
aadarniy Bagi ji,
bahut hi jabardast prahar karti ye rachana aaj ki vyawastha pe.
jitani bhi tarif ki jaye kam hai
sateek sanket....sadhuwad.
आदरणीय सौरभ भईया , लघु कथा को सराहने हेतु बहुत बहुत आभार |
आदरणीय मित्र बागी जी ! आपकी यह लघुकथा मात्र लघुकथा ही नहीं बल्कि आज के समाज की विद्रूपताओं का सटीक चित्रण कर रही है ! साधुवाद मित्रवर !
waah bagi ji, kitni khubsurti aapne samaaj ki bauraai ko dikha diya. chand samwaado se bta diya ki chor aur police mausere bhai hai.
yah laghukatha bahut pasand aayi.
बिल्लू दादा से कहिये नवरत्न का तेल लगाए काहे कि इ तेल में है जड़ी बूटी जो टेंसन कर दे रफू चक्कर :))))
लघुकथा पसंद आई ... बधाई
नाम भी बहुत सोच कर रखा है .... नाम के लिए डबल बधाई
जिस सच्चाई को मकान की दीवारें जानती हैं उस सच्चाई को खुद मकान बोला नहीं करते, बस चुपचाप जीते हैं.
इसी भूमि की संस्कृति और अक्षुण्ण संस्कार की उपज ईशावास्य उपनिषद् की अमरवाणी लाख कहती रहे - मा गृद्धः कस्य स्विद्धनम् .. यानि, (इस चराचर जगत में उपलब्ध वस्तुओं पर) कभी भी गिद्ध दृष्टि नहीं रखनी चाहिये. परन्तु, इसी भूमि की संततियाँ क्या जीवन जीने को अभिशप्त हैं !?
भाई बाग़ी जी, आपकी इस लघुकथा में प्रयुक्त आम भाषा और संवाद-शैली जान है. जैसा तथ्य, वैसा कथ्य, जिसे पढ़ कर मन फिलहाल चुपचाप है.
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