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दफ़्तर के काम में डूबा हुआ था मैं
अचानक किसी शब्द से चिपकी चली आई तुम्हारी याद
जैसे ढेर सारे ठंढे सांद्र अम्ल में गिर जाय एक बूँद पानी
और उत्पन्न हुई ढेर सारी ऊष्मा
पानी की तैरती बूँद को झट से उबाल दे
अम्ल छलक पड़े बाहर
कुछ मेरे कपड़ों पर
कुछ मेरे चेहरे पर
यूँ अचानक मत आया करो
मेरे भीतर का अम्ल मुझे जला देता है
मैं खुद आउँगा कतरा कतरा तुम्हारे पास
जैसे ढेर सारे पानी में खो जाता है बूँद बूँद अम्ल
पानी समेट लेता है अम्ल की हर बूँद अपने भीतर

और जज्ब कर लेता है सारी ऊष्मा

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 6, 2012 at 9:15pm

आदरणीय योगराज जी, संदीप जी, राजेश कुमारी जी, महिमा जी, अरुण जी, गणेश जी, सौरभ जी, भवेश जी एवं कुमार गौरव जी आप सबका बहुत बहुत शुक्रिया

Comment by कुमार गौरव अजीतेन्दु on May 6, 2012 at 5:18pm

धर्मेन्द्र सर, एक बेहद अच्छी रचना के लिए बधाई स्वीकार करें.

Comment by Bhawesh Rajpal on May 6, 2012 at 2:43pm
बहुत अच्छे  ! बधाई  ! 

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 5, 2012 at 9:04pm

यूँ अचानक मत आया करो
मेरे भीतर का अम्ल मुझे जला देता है
मैं खुद आउँगा कतरा कतरा तुम्हारे पास
जैसे ढेर सारे पानी में खो जाता है बूँद बूँद अम्ल
पानी समेट लेता है अम्ल की हर बूँद अपने भीतर
और जज्ब कर लेता है सारी ऊष्मा 

अद्भुत भाव-रचना, अद्भुत शब्द संयोजन !! .. हार्दिक बधाई !!!


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on May 5, 2012 at 8:58pm
दफ़्तर के काम में डूबा हुआ था मैं, अचानक किसी शब्द से चिपकी चली आई तुम्हारी याद, जैसे ढेर सारे ठंढे सांद्र अम्ल में गिर जाय एक बूँद पानी और उत्पन्न हुई ढेर सारी ऊष्मा |
बहुत खूब, नये बिम्ब के साथ  उत्पन्न इस अभिव्यक्ति पर बधाई |
Comment by Abhinav Arun on May 5, 2012 at 7:55pm

सुन्दर भावपूर्ण रचना श्री धर्मेन्द्र जी !!

Comment by MAHIMA SHREE on May 5, 2012 at 2:44pm
मेरे भीतर का अम्ल मुझे जला देता है
मैं खुद आउँगा कतरा कतरा तुम्हारे पास
जैसे ढेर सारे पानी में खो जाता है बूँद बूँद अम्ल
पानी समेट लेता है अम्ल की हर बूँद अपने भीतर..
आदरणीय धर्मेन्द्र सर ..
बहुत -२ बधाई आपको इस खुबसूरत कविता के लिए

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on May 5, 2012 at 1:32pm

वाह क्या बात है धर्मेन्द्र जी रसायन शास्त्र में लिपटे जज्बात और सुन्दर शब्द कभी आपकी कविता गणित की चादर  में लिपटी होती है नए नए सामयिक प्रयोग वाह ...बहुत ही खूबसूरत भाव जो कविता पूर्णतः कहने में सक्षम है ..बधाई आपको 

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 5, 2012 at 12:58pm

यूँ अचानक मत आया करो

मेरे भीतर का अम्ल मुझे जला देता है
मैं खुद आउँगा कतरा कतरा तुम्हारे पास
बहुत सुन्दर ,कितनी    सरलता से गंभीर बात  बधाई.

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on May 5, 2012 at 11:04am

//यूँ अचानक मत आया करो

मेरे भीतर का अम्ल मुझे जला देता है//
क्या कहने हैं धर्मेन्द्र भाई जी, वाह. इस कहते हैं खुली कविता, को छन्दमुक्त होने के बावजूद भी झरने की सी रवानी से लबरेज़ है. बधाई स्वीकार करें बंधुवर. 
.

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