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भीड़...महिमा श्री

हां भीड़ में शामिल
मैं भी तो हूँ
रोज
अलसुबह उठ के
जाती हूँ
शाम को आती हूँ
दूर से देखती हूँ
कहती हूँ
ओह देखो तो जरा
कितनी भीड़ है
और फिर
मैं भी भीड़ हो जाती हूँ

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Comment

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Comment by MAHIMA SHREE on May 11, 2012 at 4:22pm
भवेश जी .. आपको रचना पसंद आई आभारी हूँ
Comment by MAHIMA SHREE on May 11, 2012 at 4:21pm
आदरणीय बागी जी .. .. मुझे अजय जी की रचना भीड़ बहुत ही सशक्त लगी अपनी भीड़ की अपेक्षा .. पर आपको मेरी रचना भी सशक्त लगी.... मुझे उत्साहित कर गयी ..
आपका ह्रदय से आभार और बहुत -२ धन्यवाद

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on May 11, 2012 at 4:15pm

वाह क्या संयोग है, भीड़ शीर्षक से आज दो दो रचनाएँ आई है और दोनों रचनाएँ ससक्त हैं , सच में हम भी तो एक हिस्सा हैं उस कथित भीड़ के , सुन्दर रचना महिमा जी, बधाई स्वीकार कीजिये |

Comment by Bhawesh Rajpal on May 11, 2012 at 4:10pm

I liked it >

Comment by MAHIMA SHREE on May 11, 2012 at 3:39pm
आदरणीया सरिता दी .. आपने बिलकुल सही समझा मैंने भीड़ समाज को ही कहा है जो अनवरत अपने कर्तव्यों के निर्वहन के लिए और अपने जरुरतो की पूर्ति के लिए मशीन की तरह रोज काम पे जाती है बिना नागा .... और कल तक (बचपन) मैं दूर से देखती थी यानि इस जिम्मेवारी से मुक्त थी पर आज मैं भी इसका एक हिस्सा हूँ .. बाकि आपने जो कहा ""यहाँ जो भी हो रहा है वो हम सब की ज़िम्मेदारी है , इसी लिए पल्ला झाड़ने के बजाय सुधार करना हमारा कर्तव्य है, और शुरुआत भी खुद से ही करें तो ज्यादा अच्छा हो.. "" तो इस बात सहमत हूँ मशीन की तरह काम करने के बजाये इसमें पनपे बुराई को भी दूर करने के लिए हम सबको उत्साहित होकर प्रयासरत रहना चाहिए /
विस्तृत प्रतिक्रिया के लिए आपका ह्रदय से आभार .....
Comment by Sarita Sinha on May 11, 2012 at 1:59pm

प्रिय   महिमा जी  , बात छोटी सी है, लेकिन बहुत बड़ी है..

आप ने हो सकता है ये सोच के न लिखा हो लेकिन मुझे ऐसा लगा कि "भीड़ " ये समाज है, हम सब इस का हिस्सा हैं,तो,  यहाँ जो भी हो रहा है वो हम सब की  ज़िम्मेदारी है , इसी लिए पल्ला झाड़ने  के  बजाय सुधार करना हमारा कर्तव्य है, और शुरुआत भी खुद से ही करें तो ज्यादा अच्छा हो.. 
ऐसा मुझे लगा..
आप ने क्या सोच के लिखा , बताइयेगा....

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