अजीब से दायरे
अनेक बंधन
अनेक विचार
मैंने पाल रखे हैं
अजीब सी मान्यताएं
अनेक नियम
अनेक प्रथाएं
इनसे निकल नहीं पाती
घुमती रहती हूँ उसी में
बाहर जा नहीं पाती
मैंने कही भी नहीं
खुले रखे हैं दरवाजे
डाल रखे हैं दरवाजो पे
बड़े बड़े ताले
खो बैठी हूँ उनकी चाभियाँ
नहीं ढूंढने जाती हूँ उन्हें
सोच रखे हैं कई बहाने
बाहरी हवाएं नहीं आती
मौसम भी नहीं बदलते
सूरज की किरणें भी
लौट जाती है टकराकर
दो पल खुश हो जाती हूँ
अपने इंतजामात पर
पर अगले पल ही छा जाता है
घनघोर अँधेरा
मुश्किल होता है
ये जानना
दिन है या रात हो गयी है
सच है या
है कोई मायाजाल
Comment
really nice...........
स्नेही महिमा जी, मन की उहापोह व अंतर्द्वंद को दर्शाती सफल रचना.....बधाई...मुझे आने में देर हो गयी..sorry
मैंने कही भी नहीं
खुले रखे हैं दरवाजे
डाल रखे हैं दरवाजो पे
बड़े बड़े ताले
खो बठी हूँ उनकी चाभियाँ
नहीं ढूंढने जाती हूँ उन्हें
सोच रखे हैं कई बहाने
महिमा जी सुन्दर और गहन भाव लिए रचना ..काश ये ताले टूट जाएँ अँधेरा न छाये सब कुछ सुहाना हो रौशनी बिखरे मानव खुद पर नियंत्रण रखे तो आनंद और आये
जय श्री राधे
भ्रमर ५
आत्ममुग्धता की विवेचना करती एक सशक्त रचना के लिये आपको हार्दिक बधाई, महिमा जी.
आपका मायाजाल है तो यथार्थपरक क्यूंकि हम सभी अपने अंदर कुछ ऐसे नियम बना लिए हैं ऐसी धारणाएं पाल ली हैं कि उन्हीं में बंधे रह जाते हैं| फिर भी इसमें रहस्यवाद की पूरी झलक मिल रही है| उत्कृष्ट काव्य की प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई स्वीकार करें महिमा जी!
मैंने कही भी नहीं
खुले रखे हैं दरवाजे
डाल रखे हैं दरवाजो पे
बड़े बड़े ताले
खो बैठी हूँ उनकी चाभियाँ
नहीं ढूंढने जाती हूँ उन्हें
sach me..
सच है या
है कोई मायाजाल ...wah! Maheema ji.
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