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भीड़...महिमा श्री

हां भीड़ में शामिल
मैं भी तो हूँ
रोज
अलसुबह उठ के
जाती हूँ
शाम को आती हूँ
दूर से देखती हूँ
कहती हूँ
ओह देखो तो जरा
कितनी भीड़ है
और फिर
मैं भी भीड़ हो जाती हूँ

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Comment by राज़ नवादवी on August 9, 2013 at 12:43am

आपका स्वागत है आदरणीया महिमा जी!

Comment by MAHIMA SHREE on August 7, 2013 at 9:01pm

//हम सब एक दूसरे की भीड़ हैं और खुद की खल्वत! जो मैं हूँ मेरे लिए वो तू नहीं, जो तू है अपने लिए वो मैं नहीं//

 

क्या बात है आदरणीय राज नवादवी जी बड़ी  ही  खुबसूरत सूफियाना आपकी प्रतिक्रिया मिली ... अहो भाग्य !! लेखनी को सार्थकता मिली .. सादर आभार

Comment by राज़ नवादवी on August 7, 2013 at 8:12pm

हम सब एक दूसरे की भीड़ हैं और खुद की खल्वत! जो मैं हूँ मेरे लिए वो तू नहीं, जो तू है अपने लिए वो मैं नहीं......सुन्दर रचना के लिए बधाई महिमा जी! 

Comment by MAHIMA SHREE on May 19, 2012 at 8:31pm
आदरणीय अशोक सर , नमस्कार ,
सराहने और अनुमोदन के लिए हार्दिक आभार   
Comment by Ashok Kumar Raktale on May 18, 2012 at 6:37pm

महिमा जी
          सादर, बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति. शायद आसान नहीं है अलग रह पाना. भीड़ में ही गुम हो कर रह जाना पड़ता है. बधाई.

Comment by MAHIMA SHREE on May 12, 2012 at 9:21pm

आपका हार्दिक आभार .. आदरणीय नीलांश जी व् आदरणीय अजय जी सधन्यवाद

Comment by MAHIMA SHREE on May 12, 2012 at 9:20pm

आदरणीय भ्रमर सर , नमस्कार सराहना के लिए धन्यवाद  

Comment by Ajay Kumar Dubey on May 12, 2012 at 1:33pm

छोटी ही सही सुन्दर अभिव्यक्ति.

Comment by Nilansh on May 12, 2012 at 11:40am

bahut sunder.

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on May 11, 2012 at 9:55pm

दूर से देखती हूँ
कहती हूँ
ओह देखो तो जरा
कितनी भीड़ है
और फिर
मैं भी भीड़ हो जाती हूँ

हाँ यही सच है ..हम अपने को कहाँ झाँक पाते हैं ...सुन्दर ..गहन भाव --भ्रमर ५ 

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