मैं
भीड़ हूँ
इस लोकतंत्र के ढाँचे की मैं रीढ़ हूँ
जी हाँ
मैं भीड़ हूँ...
तिनका-तिनका जोड़ता दिन का
रोज़ बिखरता-जुड़ता
मन-आशाओं का नीड़ हूँ
मैं भीड़ हूँ...
कहाँ फुर्सत
वैष्णव-जन को,
की जाने मुझ को
एक परायी पीड़ हूँ
मैं भीड़ हूँ...
~ © AjAy Kum@r
Comment
bahut bahut shukriya, Sandeep ji, Dubey ji, Arun kumar ji....
main abahari hoon apka, apki hausla afzahi ka.
कहाँ फुर्सत
वैष्णव-जन को,
की जाने मुझ को
एक परायी पीड़ हूँ
मैं भीड़ हूँ...
बहुत बहुत सशक्त रचना !! लोकतंत्र में आज लोक की पीड़ा झलक रही है इस रचना में हार्दिक बधाई श्री अजय जी !!
बहुत ही सुन्दर रचना.
bahut sundar ..........
बहुत बहुत धन्यवाद महिमा जी, बागी जी, सौरभ जी, भावेश जी और राजेश जी,
बहुत ही प्यारी सशक्त रचना
Nice !
इस कविता ’भीड़’ हेतु बधाई, अजय जी.
जिस दिन यह भीड़ अपने को लोकतंत्र की रीढ़ समझ ले उस दिन से देश का काया ही सुधर जाये , खुबसूरत रचना हेतु बधाई अजय जी |
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