कमी है कौन सी कुदरत के कारखाने में ,
उलझ के रह गया इन्सान जो आबो -दाने में .
वोह जिसके दम से उजाला है मेरी आँखों में ,
उस्सी की आज कमी है गरीब खाने में .
मेरे नसीब में लिखी है ठोकरे शयेद ,
जो भूल बैठा हूँ तुझको भी इस ज़माने में .
समझ रहा था जिसे मै गरीब परवर है ,
उस्सी ने आग लगे है आशियाने में .
हटा जो मर्कज़े हस्ती से देखीय "रिज़वान",
भटक रहा है वही दरबदर ज़माने में .
Comment
रिजवान जी, बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल कही है, टंकण की त्रुटियाँ कई जगह परिलक्षित है एडमिन से कहकर ठीक करा लें , इस खुबसूरत अभिव्यक्ति पर दाद कुबूल करें |
रिजवान भाई बहुत उम्दा ग़ज़ल और खूबसूरत फिक्र ! ये शेर तो लाजवाब है :मेरे नसीब में लिखी है ठोकरें शायद ,
जो भूल बैठा हूँ तुझको भी इस ज़माने में . दाद कुबूल करे!
रिजवान जी
सादर,
कमी है कौन सी कुदरत के कारखाने में ,
उलझ के रह गया इन्सान जो आबो -दाने में .
वाह! बहुत सुद्नर गजल. बधाई.
कमी है कौन सी कुदरत के कारखाने में ,
उलझ के रह गया इन्सान जो आबो -दाने में .
बहुत बढ़िया रिजवान जी बधाई आपको
बहुत बहुत उम्दा ग़ज़ल है हर शेर शानदार है एक दो टंकण त्रुटियाँ हैं ठीक कर सकते हैं
बहुत खूब माशा-अल्लाह पूरी ग़ज़ल उम्दा है रिज़वान
वोह जिसके दम से उजाला है मेरी आँखों में ,
उस्सी की आज कमी है गरीब खाने में . wah!janab......
कमी है कौन सी कुदरत के कारखाने में ,
उलझ के रह गया इन्सान जो आबो -दाने में
uljhan suljhe na , badhai
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