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MOHD. RIZWAN (रिज़वान खैराबादी)'s Blog (12)

हमेशा जिसने मेरे साथ बस जफ़ा की है-ग़ज़ल

हमेशा जिसने मेरे साथ बस जफ़ा की है

उसी के वास्ते दिल ने मेरे दुआ की है



शराब लाने में ताख़ीर क्यों भला की है

ये इंतज़ार की शिद्दत भी इंतहा की है



तुम्हारे शेर से बेहतर हमारे शेर कहाँ

कि शेर ग़ोई की हमने तो इब्तदा की है



हर एक लफ्ज़ संवर जाये शेर के मानिंद

किसी ने आज ख़ुदा से इल्तजा की है



बड़ी कशिश है मेरे यार तेरे जलवों में

इसी लिए तो मेरे दिल ने भी खता की है



क़सम जो खाई है मजबूर हो के उल्फत में

क़सम तुम्हारी नहीं ये क़सम… Continue

Added by MOHD. RIZWAN (रिज़वान खैराबादी) on November 10, 2017 at 10:53pm — 2 Comments

जश्न मिल जुल कर मनाओ यौमे आज़ादी है आज - ग़ज़ल

आग नफरत की बुझाओ यौमे आज़ादी है आज

दिल से दिल अपने मिलाओ यौमे आज़ादी है आज



मंदिरों मस्जिद के झगड़े छोड़ कर ऐ दोस्तों

बात कुछ आगे बढ़ाओ यौमे आज़ादी है आज



जो हक़ीक़त थी वो सब इतिहास बन कर रह गई

याद शोहदा की दिलाओ यौमे आज़ादी है आज



जान जब क़ुर्बान करते हो वतन के वास्ते

तो तिरंगा भी उठाओ यौमे आज़ादी है आज



हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई के झगड़े भूल कर

"जश्न मिल जुल कर मनाओ यौमे आज़ादी है आज"



हमने छत दीवारो दर अपने सजायें हैं सभी

तुम… Continue

Added by MOHD. RIZWAN (रिज़वान खैराबादी) on August 14, 2017 at 12:46pm — 8 Comments

ग़ज़ल - तड़प रहा हूँ मगर मुस्कुरा रहा है कोई

तड़प रहा हूँ मगर मुस्कुरा रहा है कोई

सितम पे और सितम आज ढा रहा है कोई



अदाओं नाज़ से दामन बचा रहा है कोई

की आज मुझसे निगाहें चुरा रहा है कोई



सहूंगा कैसे मैं ग़म अर्स-)ए जुदाई का

बिछड़ के मुझसे बहुत दूर जा रहा है कोई



हवाएं बुग्जो अदावत की लाख तेज़ सही

मग़र चराग़ वफ़ा के जला रहा है कोई



कमा के नेकियाँ फिर आज आखरत के लिए

नये मकान का नक्शा बना रहा है कोई



वफ़ा ही करता रहा आज तक मगर "रिज़वान"

नज़र से अपनी मुझे क्यूँ गिरा रहा है… Continue

Added by MOHD. RIZWAN (रिज़वान खैराबादी) on May 28, 2016 at 3:30pm — 6 Comments

मोहब्बत की जो दिल में बहार रखते हैं

सुकून रखते है हर पल क़रार रखते हैं

मोहब्बत की जो दिल में बहार रखते हैं।।



वो आयेगा तो बहारें भी साथ लायेगा

उसी के आने का हम इन्तज़ार रखते हैं।।



कहाँ-कहाँ से मिले ज़िन्दगी की राहों में

हम अपने ज़ख्मों का खुद ही शुमार रखते हैं।।



कफ़न भी बांध के हमराह अपने सारे जवाँ

जो सरहदों पे हैं आँखें भी चार रखते हैं।।



यही है फितरते इन्सां तो इसको क्या कहिये

सब अपने-अपने लहू से ही प्यार रखते हैं।।



तालुक़ात कहाँ तक निभायें हम उनसे

जो… Continue

Added by MOHD. RIZWAN (रिज़वान खैराबादी) on January 30, 2016 at 11:38am — 7 Comments

मीर के जैसी गज़लें कहना सबके बस की बात नही।

हाले गमे तन्हाई लिखना सबके बस की बात नही।

दीवानो सी बातें करना सबके बस की बात नही।



दोस्ती यारी सब करते हैं आज भी इन्सां दुनिया में

कृष्ण सुदामा जैसी निभाना सबके बस की बात नही।



हँसते बच्चों को तो रुलाना होता हैं आसान यहाँ

रोते को है आज हँसाना सबके बस की बात नही।



हमने लिखा है नाम तुम्हारा दिल के लहू से कागज़ पर

कैसे कहें हम इसको मिटाना सबके बस की बात नही।



दो मिसरों को जोड़ के हमने गज़लें तो कह डाली हैं

मीर के जैसी गज़लें कहना सबके… Continue

Added by MOHD. RIZWAN (रिज़वान खैराबादी) on November 1, 2015 at 8:37am — 6 Comments

ज़हर अपने भी उगलते है यहाँ

यूँ भी तक़दीर बदलते हैं यहाँ

लोग गिर गिर के संभलते है यहाँ।



दोस्तों ! इक ज़रा मतलब के लिए

लोग चेहरों को बदलते है यहाँ।



माईले हिर्सो हवस है कितने

देख कर ज़र को फिसलते है यहाँ।



आँख की पुतली फिरे फिर शायद

लोग पल भर में बदलते है यहाँ।



ग़ैर की बात नहीं ऐ लोगों

ज़हर अपने भी उगलते है यहाँ।



क्या बिगाड़ेगी हवाये उनका

वो जो तूफान में पलते है यहाँ।



रोशनी बस वही फैलाते है

जो दीये की तरह जलते है यहाँ।…

Continue

Added by MOHD. RIZWAN (रिज़वान खैराबादी) on October 29, 2015 at 11:30pm — 5 Comments

लो अब तुम्हारी राह मे दीवार हम नहीं।

तुमने उठाई राह मे दीवार हम नहीं

फिर भी कह रहे हो गुनहगार हम नहीं।



उम्मीद कर रहा हूँ वफ़ा की उन्ही से मैं

कहते हैं जो किसी के तलबग़ार हम नहीं।



दिल मे नज़र मे तुम हो तो फिर किस तरह कहें

ऐ दोस्त अब भी करते तुम्हें प्यार हम नहीं।



दुनिया की ठोकरों ने गिरा कर ही रख दिया

लो अब तुम्हारी राह मे दीवार हम नहीं।



वो तो शगुन मे आज अंगूठी भी दे गये

हम लाख कह रहे थे की तैयार हम नहीं।



हम उसकी धुन में हैं तो ज़माने की क्या… Continue

Added by MOHD. RIZWAN (रिज़वान खैराबादी) on October 29, 2015 at 7:00pm — 2 Comments

जो लिक्खेंगे ज़माने से कभी हट कर न लिक्खेंगे....

तुम्हारी हक़ बयानी को कभी डर कर न लिक्खेंगे ...

कि आईने को हरगिज़ हम कभी पत्थर न लिक्खेंगे...



रहे इश्को वफ़ा में ये तो सब होता ही रहता है..

तुम्हारी आज़माइश को कभी ठोकर न लिक्खेंगे....



भरोसा क्या कहीं भी ज़ख्म दे सकता है हस्ती को........

हम अपने दुश्मने जां को कभी दिलबर न लिक्खेंगे.....



तू क़ैदी घर का है, हम तो मुसाफिर दस्तो सहरा के....

कहाँ हम और कहाँ तू हम तुझे हमसर न लिक्खेंगे.....



उड़ानों से हदें होती है कायम हर परिंदे कि…

Continue

Added by MOHD. RIZWAN (रिज़वान खैराबादी) on July 18, 2012 at 9:00am — 6 Comments

मेरी आँखों में जो देखा गया है ... तेरे ही अक़स को पाया गया है ...

मेरी आँखों में जो देखा गया है ...

तेरे ही अक़स को पाया गया है ...



मुझे आइन-ए-तहज़ीब समझा ...

वो शायद  इस लिये शर्मा गया है ...



वही जिसने मुझे दीवाना  समझा ...

जहाने दिल पे मेरे छा गया है ...



निगाहों से न बच पाया मैं उसकी ...

मुझे इस तोवर से ढूंढा  गया है ...



उसे हुस्ने-सरापा कह दिया था ...

उसी दिन से वो बस इतरा गया है ...



ये किसके लम्स का झोंका था आख़िर  ...

मेरे कमरे को जो महका गया है ... …

Continue

Added by MOHD. RIZWAN (रिज़वान खैराबादी) on July 9, 2012 at 6:30pm — 6 Comments

कमी है कौन सी कुदरत के कारखाने में ,


कमी है कौन सी कुदरत के कारखाने में ,
उलझ के रह गया इन्सान जो आबो -दाने में .

वोह जिसके दम से उजाला है मेरी आँखों में ,
उस्सी की आज कमी है गरीब खाने में .

मेरे नसीब में लिखी है ठोकरे शयेद ,
जो भूल बैठा हूँ तुझको भी इस ज़माने में .

समझ रहा था जिसे मै गरीब परवर है ,
उस्सी ने आग लगे है आशियाने में .

हटा जो मर्कज़े हस्ती से देखीय "रिज़वान",
भटक रहा है वही दरबदर ज़माने में .

Added by MOHD. RIZWAN (रिज़वान खैराबादी) on May 17, 2012 at 10:00pm — 8 Comments

ये है कंप्यूटर सदी यानि ज़माना है नया ,

मंजिले  ऊँची  बनाना  आज  की  तामीर  है , 

इस  सदी  की  दोस्तों  कितनी  अजब  तस्वीर  है ... 



ये  है  कंप्यूटर  सदी  यानि  ज़माना  है  नया , 

कितनी  आसानी  से  बदली   जा  रही  तस्वीर  है ... 



क्या  कटेगी  ज़िन्दगी  अपनों  की  मोबाईल  बगैर , 

ये  हमारे  दौर  की  मुंह …

Continue

Added by MOHD. RIZWAN (रिज़वान खैराबादी) on May 7, 2012 at 11:30am — 11 Comments

"न जाने क्यूँ किसी को खल रहा हूँ"

न  जाने  क्यूँ  किसी  को  खल  रहा  हूँ ,

मै  अपनी  रह  गुज़र  पर  चल  रहा  हूँ ....



दीया  हूँ  हौसलों का इसलिए मै ,

मुकाबिल  आँधियों  के  जल  रहा  हूँ ....



मै  तेरे  नाम  की  शोहरत  हूँ  शाएद ,

इसी  बयेस  सभी  को  खल  रहा  हूँ .....



मुझे  तू  याद  रखे  या  भुला  दे ,

मै  तेरी  याद  में  हर  पल  रहा  हूँ ....…



Continue

Added by MOHD. RIZWAN (रिज़वान खैराबादी) on May 5, 2012 at 12:30pm — 17 Comments

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