पौधा था छोटा था
लगता था अब गया तब गया
कभी बारिश की बुँदे
सुहानी लगती थी
कभी लगता डूब गया डूब गया,
हिम्मत करके टहनियां बढ़ाई,
नयी कोपलें बिखराई,
अब गगनचुम्बी वृक्षों को
छूने लगी टहनियां,
लगा मै भी खडा हो गया खडा हो गया,
मगर पुष्पों के खिलने तक
अहसास नहीं हो पाया बड़ा होने का,
फलों से लदते ही लगा
मै बड़ा हो गया बड़ा हो गया,
मै भूल गया
वो छुटपन का अहसास
ना डर रहा कुछ खोने का
ना उत्साह और कुछ पाने का,
दे रहा हूँ आश्रय आने जाने वालों को
और कुछ मीठे फल खाने को,
क्योंकि मै वृक्ष हो गया वृक्ष हो गया.
Comment
आदरणीय बागी जी
आहा !! वृक्ष हो या मनुष्य दोनों का जीवन एक ही तरह का है ना ...बहुत ही खुबसूरत रचना आदरणीय अशोक कुमार जी , बहुत बहुत बधाई इस रचना पर |
सरिता जी
सादर नमस्कार, प्रकृति हमें सदैव शिक्षा देती है. हम पर ही निर्भर करता है हम कितना ग्रहण कर पाते हैं. आपकी सार्थक प्रतिक्रया के लिए धन्यवाद.
आदरणीय प्रभाकर जी
सादर नमस्कार, आपको मेरी रचना पसंद आयी आपकी प्रशंसा मुझे आगे और भी अच्छा लिखने के लिए प्ररित करेगी. धन्यवाद.
मान्यवर अशोक जी, नमस्कार,
आदरणीय अशोक कुमार रत्कले जी, वृक्ष को बिम्ब बना कर बहुत गहरी बात कह गए आप. पूरे मानव जीवन को इतने थोड़े शब्दों में बयान कर दिया - वाह वाह वाह. इस सारगर्भित कथ्य पर मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें.
आदरणीय सौरभ जी
सादर नमस्कार, बिलकुल सही कहा आपने, यही मुलभूत गुण हम मानव में देखना चाहते हैं. आभार.
रेखा जी,
सादर नमस्कार, आपको रचना अच्छी लगी मेरा लिखना सार्थक हुआ. धन्यवाद.
वृक्ष को सामने रख कर मूलभूत गुणों का अच्छा बखान किया आपने, अशोक भाईजी.
bahut sundr rachna ashok ji ,bahut bahut badhai
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